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________________ सर्वज्ञसिद्धि ] प्रथम परिच्छेद गर्भादेर्वेदार्थज्ञानकालेपि वेदार्थाज्ञानप्रसङ्गः । ज्ञानाज्ञानयोः परस्परविरुद्धत्वादेकत्रैकदा न प्रसङ्ग इति चेत्तत एव सकलगुणदोषयोरेकत्रैकदा प्रसङ्गो मा भूत् । पुनर्दोषस्याविर्भावदर्शनाद्गुणकालेपि सत्तामात्र सिद्धिरिति चेत्तर्हि गुणस्यापि पुनराविर्भूतिदर्शनाद्दोषकाले पि सत्तामात्रसिद्धिः, सर्वथा विशेषाभावात् । तथा चात्मनो दोषस्वभावत्वसिद्धिवद्गुणस्वभावत्वसिद्धिः कुतो निवार्येत ? विरोधादिति चेद्दोषस्वभावत्वसिद्धिरेव निवार्यतां, तस्य गुणस्वभावत्वसिद्धेः । कुतः 2 सेति चेद्दोषस्वभावत्वसिद्धिः कुतः ? संसारित्वान्यथानुपपत्ते 3 तिरोहित ( ढके हुए) दोषों का सद्भाव पाया जाता है अतः दोष कादाचित्क नहीं हैं किन्तु उनकी नित्यता ही सिद्ध होती है । अर्थात् मीमांसक कहता है कि दोष जीव का स्वभाव है क्योंकि वह आत्मा में हमेशा ही पाया जाता है गुण तो दोष के अभाव यानी तिरोहित होने पर होते हैं अतः वे पर निमित्तक हैं। [ जैन - यह ठीक नहीं है क्योंकि दोष के समान गुणों को भी नित्यपने का प्रसंग आवेगा । अर्थात् गुणों के सद्भाव के समय भी तिरोहित रूप से दोषों का सद्भाव मानना पड़ेगा तब गुणों सद्भाव के काल में भी ढके हुए दोषों का सद्भाव स्वीकार करने पर ब्रह्मा आदि को वेदार्थ के ज्ञान के समय भी वेद के अर्थ के अज्ञान का प्रसंग आ जावेगा । ३०६ मीमांसक - ज्ञान और अज्ञान का परस्पर में विरोध होने से एक जीव में एक समय में दोनों नहीं रह सकते हैं । जैन -उसी प्रकार सकल गुण और दोष का भी एक जीव में एक समय में प्रसंग नहीं होना चाहिए । मीमांसक -- पुनः दोषों का आविर्भाव देखा जाता है अतः गुण के काल में भी दोषों की सत्ता मात्र सिद्ध होती है । जैन - तो गुण का भी आविर्भाव देखे जाने से दोष काल भी गुणों की सत्ता मात्र सिद्धि क्यों न हो जावे क्योंकि दोनों में कोई अन्तर नहीं है फिर आत्मा के दोष स्वभाव की सिद्धि के समान गुण स्वभाव की सिद्धि का निवारण भी कैसे हो सकता है ? मीमांसक - विरोध होने से अर्थात् दोष और गुण परस्पर विरोधी हैं ये दोनों स्वभाव जीव के कैसे हो सकेंगे ? परस्पर विरोधी दो स्वभावों का एक जगह एक काल में रहने में विरोध है । मीमांसक - आत्मा का स्वभाव गुण है यह बात हम किस प्रमाण से मानें ? जैन - आत्मा का स्वभाव दोष है यह बात भी हम किस प्रमाण से मानें ? जैन - यदि ऐसी बात है तो दोष स्वभाव का ही निवारण कीजिये और जीव का गुणस्वभाव है । ऐसा ही स्वीकार कीजिये । Jain Education International 1 आत्मनः । 2 आत्मनो गुणस्वभावत्वसिद्धिः । 3 आत्मनः । 4 आत्मनो दोषस्वभावत्वमन्तरा संसारित्वं न स्यात्ततो दोषस्वभावत्वसिद्धिरिति मीमांसकः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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