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अष्टसहस्री
३०८ ]
[ कारिका ४न्यज्ञानादिर्मलः । इति स्वभावहेतुः । न तावदयमसिद्धः । कथम् ? यो' यत्र कादाचित्कः स तत्रागन्तुकः । यथा स्फटिकाश्मनि लोहिताद्याकारः । कादाचित्कश्चात्मनि दोष इति । न चेदं कादाचित्कत्वमसिद्ध, सम्यग्ज्ञानादिगुणाविर्भावदशायामात्मनि दोषानुपपत्तेः ।
[ मीमांसको जीवस्य स्वभावं दोषं मन्यते तस्य निराकरणं ] 'ततः प्राक्तत्सद्भावाद्गुणावि तिदशायामपि तिरोहितदोषस्य सद्भावान्न कादाचित्कत्वं, सातत्यसिद्धेरिति चेन्न, 'गुणस्याप्येवं सातत्यप्रसङ्गात् । तथा च हिरण्य
भावार्थ-शंकाकार मीमांसक का कहना है कि जैसे आवरण रूप द्रव्य कर्म पर्याय रूप से ही नष्ट होते हैं। द्रव्यरूप से नहीं यह बात आपने सिद्ध कर दी है। उसी प्रकार से अज्ञान आदि दोष भी पर्याय रूप से ही नष्ट होंगे न कि द्रव्य रूप से और तब सामान्यतया दोषों का द्रव्य रूप से अस्तित्व बना ही रहेगा पुनः कोई भी आत्मा निर्दोष, सर्वज्ञ कैसे हो सकेगी?
__इस पर जैनाचार्य समाधान करते हैं कि जैन सिद्धान्त में प्रत्येक आत्मा के परिणाम दो प्रकार प्रकार के माने गये हैं एक स्वाभाविक और दूसरा आगंतुक अथवा वैभाविक । अनन्त ज्ञान, दर्शन आदि तो आत्मा के स्वाभाविक परिणाम हैं क्योंकि ये आत्मा के ही स्वरूप हैं जैसे कि अग्नि का स्वरूप उष्ण एवं जल का स्वभाव शीतलता है और अज्ञान आदि जो दोष हैं वे आगंतुक हैं क्योंकि ये कर्म के उदय से ही होते हैं ये आत्मा के स्वभाव को ही विकृत करके रहते हैं अतएव इन्हें विभाव भाव भी कहते हैं। ये कर्म के उदय से ही होते हैं अतः इन्हें औपाधिक भाव भी कहते हैं । जब कर्म को नाश करने की सामग्री मिल जाती है तब ये विभावभाव स्वभाव रूप परिणत हो जाते हैं जैसे मिथ्यात्व के अभाव में जीव में सम्यक्त्व गुण प्रकट हो जाता है।
ज्ञानावरण के अभाव में केवलज्ञान, अंतराय के अभाव में अनंतवीर्य आदि गुण प्रकट हो जाते हैं। इसलिए ये अज्ञानादि दोष पृथक् कोई द्रव्य नहीं हैं किन्तु जीव के ही विकारी परिणाम हैं विकार के कारणभूत कर्मोदय के पृथक् हो जाने से ये अपने स्वभाव में ही रह जाते हैं साता-असाता वेदनीय का अभाव होने से स्वाभाविक स्वात्मा से ही उत्पन्न अतीन्द्रिय सुख रह जाता है और इन्द्रिय जन्य वैभाविक सुख दुःख का काम समाप्त हो जाता है। इसी का नाम है दोषों का अभाव ।
[मीमांसक दोषों को जीव का स्वभाव मानता है उसका निराकरण । ] मीमांसक-गुणों के प्रकट होने के पहले दोषों का सद्भाव होने से गुणों की आविर्भूत दशा में भी
1 आत्मन्यज्ञानादिर्मल आगन्तुकः कादाचित्कत्वादित्यध्याहार्यम् । 2 आत्मनि दोषः पक्षः आगन्तुको भवतीति साध्यो धर्मः कादाचित्कत्वात् तस्मादागंतुक इति निगमः दि. प्र.। 3 परः आह इदं कादाचित्कत्वमसिद्धं जैन आह एवं न दि. प्र.। 4 दोषस्वभावत्वं जीवानामिच्छन् मीमांसकः प्राह। 5 गुणाविर्भूतेः प्राक् । 6 स दोषः। 7 ब्रह्मादिज्ञानस्य । ४ दोषप्रकारेण। 9 गुणसद्भावकालेपि तिरोहितदोषसद्भावेङ्गीक्रियमाणे ।
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