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________________ सर्वज्ञसिद्धि ] प्रथम परिच्छेद [ ३०७ बुद्धिवत् । ततो दोषसामान्यस्यात्मन्यवस्थानान्न निर्दोषत्वसिद्धिरित्यपरः', सोप्यतत्त्वज्ञ एव, यतः प्रतिपक्ष एवात्मनामागन्तुको मलः परिक्षयी 'स्वनिसिनिमित्त'विवर्द्धनवशात् । [ आत्मन: परिणामो कतिविध: ? ] द्विविधो ह्यात्मनः परिणामः स्वाभाविक आगन्तुकश्च । तत्र स्वाभाविकोनन्तज्ञानादिरात्मस्वरूपत्वात् । 'मलः पुनरज्ञानादिरागन्तुकः, कर्मोदयनिमित्तकत्वात् । स चात्मनः प्रतिपक्ष एव । ततः परिक्षयी । तथा हि । यो यत्रागन्तुकः स तत्र स्वनिसिनिमित्तविवर्द्धनवशात्परिक्षयी। यथा 10जात्यहेम्नि ताम्रादिमिश्रणकृतः कालिकादिः । आगन्तुकश्चात्म की पर्याय रूप से ही निःशेष हानि होगी जैसे की आवरण की होती है, न पुनः द्रव्य रूप से बुद्धि के समान ।" इससे आत्मा में दोष सामान्य का अवस्थान रहने से निर्दोषपने की सिद्धि नहीं हो सकेगी। __ जैन-आपने तत्त्व को नहीं समझा है। आत्मा के आगन्तु कमल-अज्ञानादि दोष प्रतिपक्षी ही हैं और वे परिक्षयी हैं क्योंकि उनके विनाश के निमित्त भूतसम्यग्दर्शनादि को वृद्धि पायी जाती है ।* [ आत्मा के परिणाम कितने प्रकार के हैं ? ] आत्मा के परिणाम दो प्रकार के हैं-स्वाभाविक और आगंतुक । उसमें अनंतज्ञानादि गुण स्वाभाविक परिणाम हैं क्योंकि वे आत्मा के स्वरूप हैं। अज्ञानादि मल आगन्तुक परिणाम हैं क्योंकि ज्ञानावरणादि कर्मों के उदय के निमित्त से होते हैं। वे आगंतुक परिणाम आत्मा के प्रतिपक्षी ही हैं इसीलिए परिक्षयी-क्षय होने वाले हैं । तथाहि ___“जो जहाँ पर आगंतुक है वह वहाँ पर अपने विनाश के निमित की वृद्धि के कारण मिल जाने पर क्षय होने वाला है जैसे उत्कृष्ट स्वर्ण में तांबे आदि के मिश्रण से होने वाली कालिमा आदि । आत्मा में अज्ञानादि मल आगंतुक हैं इसीलिए वे परिक्षयी है" यह स्वभाव हेतु है। हमारा यह 'स्वनिह्नास निमित्तविवर्धनवशात्' हेतु असिद्ध भी नहीं है क्योंकि “जो जहाँ पर कादाचित्क है वह वहाँ पर आगंतुक है जिस प्रकार स्फटिकमणि में लाल आदि आकार ।" तथा आत्मा में दोष कादाचित्क हैं । और हमारा यह कादाचित्क हेतु असिद्ध भी नहीं है क्योंकि सम्यग्ज्ञानादि गुणों के प्रकट होने पर आत्मा में दोषों का उद्भव नहीं देखा जाता है । 1 मीमांसकः । 2 अज्ञानादिर्दोषः। 3 पृथक्करणमेव क्षयः। 4 ता । (ब्या० प्र०) 5 निहाँसो विनाशः । 6 मलनिस्सस्य निमित्तं सम्यग्दर्शनादिगुणस्तस्य विवर्द्धनवशाखेतोः। 7 आत्मनि अज्ञानादिर्मलः पक्ष: । आगंतुको भवतीति साध्यो धर्मः । कर्मोदयनिमित्तकत्वान्यथानुपपत्तेः दि. प्र.। 8 कर्म ज्ञानावरणादि । 9 अज्ञानादिर्मल आत्मनि स्वनि सनिमित्तविवर्द्धनवशात्परिक्षयी, आगन्तुकत्वादित्यध्याहार्यम् । 10 षोडशवर्ण । (ब्या० प्र०) 11 स्वनिसिनिमित्तविवर्द्धनवशात्परिक्षयी प्रसिद्धः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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