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________________ ३०६ ] अष्टसहस्री [ कारिका ४कर्मत्वपरिणामस्तद'कुर्वतोऽकर्मत्वपरिणामेनावस्थानं, रूपादिमत्त्वसामान्यलक्षणत्वात्पुद्गलद्रव्यस्य' कर्मत्वलक्षणत्वाभावादविरुद्धमभिधीयते । 'बुद्धिद्रव्यं तु जीवः । तस्य बुद्धिः पर्यायः । तत् सामान्य लक्षणम्, “उपयोगो' लक्षणम्' इति वचनात् । न च लक्षणाभावे लक्ष्यमवतिष्ठते, 1 तस्य 12तदलक्षणत्वप्रसक्तेर्येनाबुद्धिपर्यायात्मकतयावस्थानं जीवस्य निःशेषतो बुद्धिपरिक्षयेप्यविरुद्धं स्यात् । [ अज्ञानादिदोषाणामभावो कथं भविष्यति ? ] 14नन्वेवमज्ञानादेर्दोषस्य पर्यायार्थतया हानिनिश्शेषा सिध्येदावरणवन्न' पुनद्रव्यार्थतया बौद्ध-जैसे कर्मद्रव्य का कर्म पर्याय रूप से विनाश हो जाने पर भी अकर्मात्मक पर्याय रूप से अवस्थान पाया जाता है। उसी प्रकार आत्मा के भी बुद्धिपर्याय का विनाश हो जाने पर अबुद्धि रूप पर्याय से उसका अवस्थान होने से सिद्धांत में विरोध आ ही जावेगा। जैन- दृष्टांत और दाष्टीत में विषमता होने से आपका यह कथन युक्ति संगत नहीं है क्योंकि कर्मद्रव्य पुद्गलद्रव्य है और वह आत्मा को परतन्त्र करते हुए कर्म रूप से परिणमन करता है तथा आत्मा को परतन्त्र न करते हुए अकर्मत्व रूप से परिणमित होकर अवस्थित रहता है। किसी भी द्रव्य का अत्यन्त विनाश नहीं होता है क्योंकि पुद्गल द्रव्य वर्ण, रस, गन्ध स्पर्श रूप सामान्य लक्षण वाला है। कर्म रूप लक्षण का उसमें अभाव होने से विरोध नहीं आता है पर द्रव्य-जीवद्रव्य के निमित्त से ही वह पुद्गल विभाव रूप परिणमन करके कर्म बनता है पुनः कर्मपर्याय का अभाव होने पर अपने स्वभाव में आ जाता है किंतु बुद्धि द्रव्य तो जीव है। बुद्धि उस जीव की पर्याय है और वह जीव का सामान्य लक्षण है। "उपयोगो लक्षणम्" यह सूत्रकार का वचन है और लक्षण के अभाव में लक्ष्य भी नहीं रह सकता है। अन्यथा लक्ष्यभूत जीव उपयोग लक्षण से रहित लक्षण शून्य हो जावेगा अतः जीव में निःशेष रूप से बुद्धि का परिक्षय हो जाने पर भी अबुद्धि का पर्यायात्मक रूप से अवस्थान होवे और इसमें विरोध न आवे ऐसा नहीं हो सकता है। अर्थात् यह बात विरुद्ध ही है। [ अज्ञानादि दोषों की हानि कैसे होगी ? ] मीमांसक-इस प्रकार से सत् पदार्थ का अत्यन्त रूप से विनाश न होने से "अज्ञानादि दोष 1 आत्मनि परतंत्रत्वं इति दिल्लीप्रतौ। (ब्या० प्र०) 2 आदिपदेन रसगन्धवर्णाः। 3 स्पर्शरसगंधवर्णवन्तः पुद्गलाः । (ब्या० प्र०) 4 पुद्गलद्रव्यं हि द्वेधा अणुस्कंधभेदात् तत्र प्रदेशमात्रस्पर्शादिपर्यायप्रसवसामर्थ्यनाण्यंते शब्दायते इति अणव इति निरूपणात् अणवः स्पर्शादिमंत: स्कंधास्तु शब्दादिमंत: स्पर्शादिमंतश्चेति अत्र पुद्गलद्रव्यमिति अणव एव गृह्यते। (ब्या० प्र०) 5 अत्ता कुणदि सहावं तत्थगदा पुग्गला सहावेहिं । गच्छंति कम्मभावं अण्णोण्णवगाढमवगाढं । (ब्या० प्र०) 6 सिद्धांते इति दि. प्र.। 7 ता। (ब्या० प्र०) 8 जीवस्य इति दि. प्र. । 9 ज्ञानदर्शने । (ब्या० प्र०) 10 अन्यथा । (ब्या० प्र०) 11 लक्षणस्य। 12 तत् =लक्ष्यम्। 13 अपि तु न स्यात् । 14 सतोत्यन्तविनाशानूपपत्तिप्रकारेण । 15 ज्ञान । (ब्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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