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________________ प्रथम परिच्छेद सर्वज्ञसिद्धि ] [ ३०५ [ बुद्धविनाशः सर्वथा भवति न वा ? ] कर्मणोपि वैकल्यमात्मकैवल्यमस्त्येव ततो 'नातिप्रसज्यते* । द्रव्यार्थतया बुद्धरात्मन्यप्यविनाशात्सर्वात्मना परिक्षयाप्रसङ्गात् पर्यायार्थतया परिक्षयेपि सिद्धान्ताविरोधात् । ननु च यथा कर्मद्रव्यस्य कर्मस्वभावपर्यायनिवृत्तावप्यकर्मात्मकपर्यायरूपतयावस्थानं तथात्मनो बुद्धिपर्यायतया निवृत्तावप्यबुद्धिरूपपर्यायतयावस्थानात् सिद्धान्तविरोध' एवेत्यतिप्रसज्यते इति चेन्न, वैषम्यात् । कर्मद्रव्यं हि पुद्गलद्रव्यम् । तस्यात्मनि पारतन्त्र्यं कुर्वतः __ इस पर जैनाचार्यों ने कहा कि जो पौद्गलक कार्माण वर्गणायें हैं वे जीव के रागादि भावों का निमित्त पाकर कर्मरूप पर्याय से परिणत हो जाती हैं उन कर्मवर्गणाओं का जीव से पृथक् होना ही अभाव है जीव से पृथक् होकर ये कर्मवर्गणायें कर्म पर्याय को छोड़कर अकर्म-पुद्गल रूप परिणत हो जाती हैं अतः एक पर्याय का विनाश होने पर भी अकर्म रूप दूसरी पर्याय का उत्पाद हो जाने से पुद्गल द्रव्य के अभाव का प्रसंग नहीं आता है। जैसे पुद्गल की पर्याय रूप प्रकाश का विनाश होकर अंधकार रूप पुद्गल की पर्याय प्रकट हो जाती है । श्री समन्तभद्र स्वामी ने कहा भी है कि "दीपस्तमः पुद्गलभावतोऽस्ति" इसलिये द्रव्य कर्म रूप पुद्गल द्रव्य का सर्वथा विनाश न होकर कर्म पर्याय का ही विनाश होना सिद्ध हो गया। [ बुद्धि का सर्वथा विनाश होता है या नहीं ? ] मणि का केवल अपने स्वरूप से रहना ही मलादिक से विकल होना है उसी प्रकार आत्मा से कर्मों को विकलता ही उसकी कैवल्य-स्वस्वरूप की प्राप्ति है इसलिए अतिप्रसंग दोष नहीं आता है ।* अर्थात् जैसे कर्म से विकल होने पर भी आत्मा की कैवल्य अवस्था है उसी प्रकार बुद्धि की विकलता होने पर भी आत्मा की कैवल्य अवस्था बनी रहे यह अतिप्रसंग दोष नहीं होता है । द्रव्य रूप से आत्मा में बुद्धि का विनाश नहीं होता है अतः संपूर्ण रूप से नाश का प्रसंग नहीं आता है परन्तु पर्याय रूप से नाश होने पर भी सिद्धांत से विरोध नहीं आता है। अर्थात् द्रव्य रूप से ज्ञान सामान्य आत्मा का गुण है और वह द्रव्य में अन्वय रूप से सतत मौजूद रहता है अतः द्रव्य रूप से ज्ञान का नाश मानने पर आत्मा का ही अभाव हो जावेगा परन्तु ऐसा नहीं होता और पर्याय रूप से अर्थात् मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय रूप क्षयोपशम ज्ञान की अपेक्षा से विनाश मानने पर भी सिद्धांत में विरोध नहीं आता है क्योंकि अहंत अवस्था में क्षयोपशमिक ज्ञानों का अभाव स्वीकार किया है। 1 निःशेषकर्मपर्यायहानी वा कर्मद्रव्यस्यापीत्यादिनोक्तप्रकारेण । यथा कर्मवैकल्येप्यात्मकैवल्यं तथा बुद्धिवैकल्येप्यात्मकघल्यमस्त्विति वाऽतिप्रसङ्गो नेति भावः। 2 सौगतः। 3 ज्ञानादिसहितत्त्वेनात्मनोऽवस्थानं जैनमते । (ब्या० प्र०) 4 जैनः। 5 दृष्टान्तदाान्तिकयोः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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