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________________ अष्टसहस्री ३०४ ] [ कारिका ४निवृत्ति निः। तस्यां च सत्यामात्यन्तिकी शुद्धिः सम्भाव्यते, सकलकर्मपर्यायविनाशेपि 'कर्मद्रव्यस्याविनाशात्तस्याकर्म पर्यायाक्रान्ततया परिणमनाद्, मलद्रव्यस्य मलात्मकपर्यायतया निवृत्तावप्यमलात्मक पर्यायाविष्टतया परिणमनवत् । तदेतेन 'तुच्छ: प्रध्वंसाभावः सर्वत्र प्रत्याख्यातः, कार्योत्पादस्यैव पूर्वाकारक्षयरूपत्वप्रतीतेः । समर्थयिष्यते चैतत् “कार्योत्पादः क्षयो हेतोनियमात्' इत्यत्र । +तेन मणे:कैवल्यमेव मलादेर्वेकल्यम्। सकल कर्म पर्याय का विनाश होने पर भी कर्मद्रव्य का विनाश नहीं होता है वह कर्मद्रव्य अकर्मपर्याय रूप परिणमन कर जाता है । अर्थात् पुद्गल द्रव्य वर्गणायें ही आत्मा के रागादिभाव का आश्रय लेकर कर्मरूप परिणमन कर जाती हैं और आत्मा को परतंत्र बना देती हैं। कदाचित् उस आत्मा से अलग होकर कर्मत्व अवस्था को छोड़कर पुनः पुद्गल रूप ही हो जाती हैं इस प्रकार सिद्धांत वचन है । जैसे कि मणि से मलद्रव्य का मलात्मक पर्याय रूप से विनाश हो जाने पर भी अमलात्मक (अन्यपुद्गल) पर्याय रूप से परिणमन हो जाता है। इसी कथन से जो तुच्छाभाव रूप प्रध्वंसाभाव को स्वीकार करते हैं उनका भी खण्डन कर दिया गया है क्योंकि कार्य का उत्पाद ही पूर्वाकार के क्षय रूप से प्रतीति में आता है। इसी का आगे "कार्योत्पादः क्षयो हेतोः' इत्यादि कारिका में समर्थन करेंगे। भावार्थ-शंकाकार का कहना है कि यदि आप जैन ज्ञानावरण आदि कर्मद्रव्य का प्रध्वंस होना रूप अभाव स्वीकार करोगे तब तो सिद्धान्त से विरोध आ जावेगा क्योंकि पौद्गलिक कर्म द्रव्य रूप कार्माण वर्गणाओं का सर्वथा अभाव हो नहीं सकता है। जैन सिद्धांत में सभी द्रव्यों को नित्य माना गया है अतः कर्मद्रव्य का नाश असंभव है। यदि कर्मपर्याय का नाश मानों तो भी एक पर्याय का नाश दूसरी पर्याय के उत्पाद रूप से होता है अतः एक कर्म पर्याय नष्ट होकर दूसरे कर्मरूप परिणत हो जावेगी। पुनः किसी जीव में सम्पूर्णतया कर्मों का अभाव सिद्ध करना अशक्य ही है। अथवा कर्म पर्याय का सम्पूर्णतया नाश मान भी लोगे तो भी कर्मद्रव्य का अभाव दुनिवार हो जावेगा क्योंकि कोई भी पर्याय अपने द्रव्य को छोड़कर रह नहीं सकती है अतः सर्वथा पर्याय के अभाव में द्रव्य का अभाव भी मानना पड़ेगा और द्रव्य का अभाव मान लेने पर तो आप निरन्वय विनाशवादी बौद्ध ही बन जावेंगे। 1 पुद्गलद्रव्यमात्मनि पारतंत्र्यं करोति तदा कर्मत्वपरिणामः पारतंत्र्य न करोति तदाऽकर्मत्वपरिणामः पुद्गलद्रव्यमेव । (ब्या० प्र०) 2 कर्मद्रव्यस्य। 3 पूगलद्रव्यस्यात्मनि पारतन्त्र्यकरणे कर्मत्व-परिणामस्तदकरणेऽकर्मत्वपरिणाम इति सिद्धान्तः। 4 यथा घटपटादिः। 5 आक्रांतत्वेन । (ब्या० प्र०) 6 मर्मलादिरित्यादिमूल ग्रंथेन । (ब्या० प्र०) 7 सर्वथा निरवशेषः । (ब्या० प्र०) 8 घटादो। (ब्या० प्र०) 9 कारिकायाम् । +ब्यावर अष्टसहस्री प्रति में "तेन............'वैकल्यम्" पंक्ति अष्टशती है अन्यत्र अ. ब. स. मु. अष्टशती एवं दिल्ली अष्ट स. प्र. में तथा मु. अष्ट स. में भी नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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