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________________ सर्वज्ञसिद्धि ] प्रथम परिच्छेद [ ३०३ कनकपाषाणाद्वा मलस्य 'किट्टादेर्वा । पुनरत्यन्तविनाशः । स हि द्रव्यस्य वा स्यात्पर्यायस्य वा ? न तावद्रव्यस्य नित्यत्वात् । नापि पर्यायस्य द्रव्यरूपेण धौव्यात् । तथा हि । विवादापन्नं मण्यादौ मलादि पर्यायार्थतया नश्वरमपि द्रव्यार्थतया ध्रुवं सत्त्वान्यथानुपपत्तेः । [ शब्दविद्युद्दीपादयोऽपि कथंचिन्नित्याः संति ] 'शब्देन व्यभिचार' इति चेन्न तस्य द्रव्यतया धौव्याभ्युपगमात् । विद्युत्प्रदीपादिभिरनेकान्त' इत्ययुक्तं, तेषामपि द्रव्यत्वतो ध्रुवत्वात्, क्षणिकैकान्ते सर्वथार्थक्रियाविरोधस्याभिधानात् । ततो यादृशी मणेर्मलादेर्व्यावृत्तिर्हानिः परिशुद्धिस्तादृशी जीवस्य कर्मणां क्योंकि पर्याय भी द्रव्य रूप से ध्रौव्य है अर्थात् पर्याय से भिन्न द्रव्य या द्रव्य से भिन्न पर्याय नहीं है । तथाहि "मणि आदि में विवादापन्न मलादि पर्याय रूप से अनित्य होते हुये भी द्रव्य रूप से ध्रुव हैं क्योंकि अस्तित्व की अन्यथानुपपत्ति है ।" अस्तित्व की अन्यथानुपपत्ति है इसका अभिप्राय यह है कि व्य के बिना सत् रह नहीं सकता । शब्द, विद्युत, दीपक आदि भी कथंचित् नित्य हैं । ] शंका- - शब्द के साथ व्यभिचार आता है यह सत्त्वान्यथानुपपत्ति रूप हेतु शब्द को नश्वर ही समाधान - यह कहना भी ठीक नहीं है । किया है । यथा - " शब्द नश्वर है क्योंकि सत्रूप है ।" यहाँ सिद्ध करता है न कि ध्रौव्य । शब्द भी द्रव्य रूप से ध्रौव्य हैं ऐसा हमने स्वीकार शंका- विद्युत् दीपक आदि से भी व्यभिचार आता है अर्थात् बिजली, दीपक आदि का अस्तित्व होते हुये भी द्रव्य रूप से ध्रौव्यपने का अभाव है । इसलिए आपका अस्तित्व हेतु व्यभिचारी है क्योंकि बिजली, दीपक आदि सर्वथा नष्ट होते हुए देखे जाते हैं । समाधान - यह कहना भी ठीक नहीं है। बिजली दीपक आदि भी पुद्गल द्रव्य होने से द्रव्यरूप सेव्य ही हैं क्योंकि क्षणिक एकांत में सर्वथा ही अर्थक्रिया का विरोध है ऐसा कहा गया है । इसलिये जैसे मणि से मलादि की व्यावृत्ति रूप हानि ही परिपूर्ण शुद्धि कहलाती है वैसे ही जीव के कर्मों की निवृत्ति रूप हानि भी परिपूर्ण शुद्धि कहलाती है । 1 यथा व्यावृत्तिरिति शेषः । 2 पर्यायः अर्थो यस्य सः पर्यायार्थस्तस्य भावस्तत्ता । ( व्या० प्र० ) 3 प्रोव्यमन्तरेण । 4 नश्वरानश्वरात्मकत्वाभावे । ( ब्या० प्र० ) 5 शब्दबुद्धिकर्मणां त्रिलक्षणावस्थायित्वं । ( ब्या० प्र० ) 6 शब्दो नश्वरः सत्त्वादित्यपि वक्तुं शक्यत्वात् । किं तात्पर्यम् ? सत्त्वान्यथानुपपत्तिरूपो हेतुः शब्दस्य नश्वरत्वमेव साधयति, न तु धौव्यमित्यर्थः । 7 विद्युदादीनां सत्त्वेपि द्रव्यार्थतया धौव्याभावादनेकान्त इत्यर्थः । 8 पुद्गल द्रव्यत्वतः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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