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________________ ३०२ ] अष्टसहस्री __ . [ कारिका ४[ कर्मद्रव्यस्य प्रध्वंसाभावरूपाभावे मन्यमाने सति दोषारोपणं, स्याद्वादिभिस्तद्दोषनिराकरणं ] 'ननु च यदि प्रध्वंसाभावो हानिस्तदा सा पौद्गलिकस्य ज्ञानावरणादेः कर्मद्रव्यस्य न संभवत्येव नित्यत्वात् तत्पर्यायस्य तु हानावपि कुतश्चित् पुनः 'प्रादुर्भावान्न निश्शेषा हानिः स्यात् । निश्शेषकर्मपर्यायहानौ वा कर्मद्रव्यस्यापि हानिप्रसङ्गः, तस्य तदविनाभावात् । तथा च निरन्वयविनाशसिद्धरात्मादि द्रव्याभावप्रसङ्ग इति 'कश्चित् सोप्यनवबुद्धसिद्धान्त एव । यस्मात्, 10मणेमलादेावत्तिः 11क्षयः, सतोत्यन्तविनाशानुपपत्तेः। तादृगात्मनोपि 12कर्मणो निवृत्तौ परिशुद्धिः । प्रध्वंसाभावो हि क्षयो हानिरिहाभिप्रेता। सा च व्यावृत्तिरेव मणेः क्योंकि सभी संसारी जीवों में इन दोनों की तरतमता देखी जाती है अतः कर्म कलंक रहित-अकलंकनिर्दोष परमात्मा की सिद्धि हो जाती है और अकलंकदेव के निर्दोष वचनों की भी सिद्धि हो जाती है। [ कर्मद्रव्य का प्रध्वंसाभावरूप अभाव मानने पर दोषारोपण एवं स्याद्वादी द्वारा उन दोषों का निराकरण ] तटस्थ जैन-यदि प्रध्वंसाभाव रूप अभाव (हानि) आपको इष्ट है तो फिर वह हानि पुद्गल रूप ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म में संभव नहीं है क्योंकि द्रव्यरूप से पुद्गल द्रव्यकर्म नित्य हैं। यदि पुद्गल द्रव्य के पर्याय की हानि मानों तो भी किसी कारण से पुनः उस पर्याय की उत्पत्ति होने से नि:शेष-संपूर्ण हानि नहीं हो सकेगी अथवा निःशेष कर्म पर्याय की हानि होने पर कर्मद्रव्य की भी हानि का प्रसंग आ जावेगा क्योंकि कर्मरूप पर्याय का कर्मद्रव्य (पुद्गल) के साथ अविनाभाव पाया जाता है। उसी प्रकार से निरन्वय विनाश होने से आत्मादि द्रव्य के अभाव का भी प्रसंग हो जावेगा। आचार्य-आपने भी सिद्धांत को ठीक से समझा नहीं है क्योंकि मणि से मलादि का पृथक्करण होना ही क्षय माना गया है । अर्थात् एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ का अलग हो जाना ही क्षय है इस बात को सैद्धांतिक लोगों ने स्वीकार किया है क्योंकि सत् (विद्यमान) पदार्थ का अत्यन्त विनाश नहीं हो सकता है। उसी प्रकार सत् स्वरूप आत्मा से भी कर्मों का पृथक्करण हो जाने पर आत्मा में परिपूर्ण शुद्धि हो जाती है।* यहाँ पर प्रध्वंसाभाव रूप क्षय को ही हानि शब्द से स्वीकार किया है और मणि से मलादि की अथवा कनक पाषाण से किट्ट कालिमा आदि की व्यावृत्ति ही पाई जाती है न कि अत्यंत विनाश । क्योंकि अत्यन्त रूप से विनाश माना जाए तो प्रश्न यह उठता है कि अत्यन्त विनाश द्रव्य का होता है या पर्याय का? द्रव्य का तो हो नहीं सकता क्योंकि द्रव्य नित्य है और न पर्याय का ही हो सकता है 1 तटस्थो जैनः । 2 भूत्त्वाभवनलक्षणः। 3 द्रव्यत्वेन । 4 द्रव्यत्वेन सद्भावात् निःशेषहानिर्मास्तु । (ब्या० प्र०) 5 मिथ्यादर्शनादिकारणात् । (ब्या० प्र०) 6 कारणात् । 7 तत्पर्यायस्य । 8 तस्यापि कर्मपर्यायहानी सत्यां तस्यापि हानिः स्यात् । (ब्या० प्र०) 9 यौगो बुद्धो वा । (ब्या० प्र०) 10 सकाशात् । 11 एकस्माद्वितीयस्य व्यावृत्तिरेव क्षय इष्यते सैद्धान्तिकानाम् । 12 कर्मणां इति पा. । (ब्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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