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सर्वज्ञसिद्धि ] प्रथम परिच्छेद
[ ३०१ कर देता है तभी तो व्यवहारी जन उस मृतक कलेवर को जला देते हैं एवं वैद्य लोग ज्वर आदि रोगों का अभाव भी सिद्ध करते हैं तभी तो अब यह स्वथ हो गया है ऐसा निर्णय होता है ।
यदि कोई कहे कि दो इन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रि तिर्यंच मनुष्य आदि के शरीर से आत्मा निकल गई है इस बात का निर्णय करना तो सहज है किन्तु एकेन्द्रिय पृथ्वी जल आदि में से आत्मा निकल गई है इसका निर्णय करना असम्भव है क्योंकि पृथ्वी आदि में चेतना आदि के रहते हुये भी हलन, चलन आदि चेष्टायें, श्वासोच्छ्वास, वचन-प्रयोग आदि बाह्य व्यापार असम्भव हैं अतः इनमें से चेतना निकल चुकी है यह कहना अशक्य है। इस पर भी आचार्य कहते हैं कि एकेन्द्रिय स्थावर में भी चैतन्य के विद्यमान रहने से पृथ्वीकायिक आदि में वृद्धि व वनस्पतिकायिक के हरे-भरे रहने से जीवितपने का अनुमान किया जाता है एवं शुष्क आदि हो जाने पर निर्जीव का अनुमान स्पष्ट है तथा च आगम के के द्वारा भी हम इन स्थावरकायिक जीवों के शरीर को अचेतन समझ सकते हैं।
राजवा तिक आदि ग्रन्थों में पांचों ही स्थावर जीवों के ४-४ भेद माने हैं । यथा पृथ्वी, पृथ्वीकाय, पृथ्वीकायिक एवं पृथ्वी जीव । सामान्य पृथ्वी को 'पृथ्वी' कहते हैं। पृथ्वीकायिक जीव के निकल जाने पर जो पृथ्वी कलेवर रूप से रह जाती है उसे 'पृथ्वीकाय' कहते हैं । पृथ्वीकायिक नाम कर्म के उदय को लेकर जिसमें एकेन्द्रिय जीव विद्यमान है ऐसी खान आदि की पृथ्वी को 'पृथ्वीकायिक' कहते हैं एवं विग्रहगति अवस्था में विद्यमान जीव को पृथ्वीजीव' कहते हैं। इन चारों में से पृथ्वी एवं पृथ्वीकाय ये दो भेद तो निर्जीव हैं एवं पृथ्वीकायिक तथा पृथ्वीजीव ये दो भेद सजीव हैं। इन दोनों में भी विग्रह गति के जीव की विराधना का तो प्रसंग ही नहीं आता है केवल पृथ्वीकायिक जीवों की ही हिंसा का प्रसंग आता है । हाँ ! विग्रह गति के जीवों की भाव हिंसा का प्रसंग आ सकता है। ऐसे ही जल, अग्नि, वायु और वनस्पति इन चारों के भी चार-चार भेद समझने चाहिये।
आचार्य ने इस बात को अच्छी तरह से सिद्ध कर दिया है कि जिस प्रकार से मृतक शरीर से चैतन्य निकल गया है एवं स्वस्थ शरीर से रोग का अभाव हो गया है वैसे ही मिट्टी के ढेले आदि से संपूर्ण रूप से चैतन्य निकल चुका है वे सर्वथा निर्जीव हैं। जैसे कृतकत्व हेतु पदार्थ को विनाशीक सिद्ध करता है धूम हेतु अप्रत्यक्ष-नहीं दिखती हुई अग्नि को सिद्ध करता है अत: इन कृतकत्व, धूमत्व हेतुओं की विनश्वर और अग्नि के साथ व्याप्ति सिद्ध है। यद्यपि यह व्याप्ति अदृश्य है फिर भी प्रमाणीक है अन्यथा अनुमान ज्ञान का अवतार ही नहीं हो सकेगा । वैसे ही पृथ्वी आदि से चैतन्य आदि गुणों का अभाव भी सिद्ध है अतः पत्थर आदि में भी बुद्धि का भी सर्वथा अभाव हो जाने से हमारा "अतिशायन" हेतु व्यभिचारी नहीं है।
राग, द्वेष आदि रूप जो भावकर्म हैं वे तो दोष हैं और ज्ञानावरण आदि जो द्रव्यकर्म हैं वे आवरण कहलाते हैं इन दोष और आवरणों का भी किसी न किसी जीव में सर्वथा अभाव हो सकता है
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