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________________ २९८ ] अष्टसहस्री _ [ कारिका ४ तद्यावृत्तिसिद्धिः' इति, तदसमञ्जसं, व्यापाराद्यशेषकार्यजननासमर्थस्य शरीरिणां 'चेतनादेरसम्भवात्, संभवे वा शरीरित्वविरोधात् । ततः कार्यविशेषानुपलब्धेः सर्वात्मना चेतनादिगुणव्यावृत्तिः पृथिव्यादेः सिध्यत्येव, मृतशरीरादेः परचैतन्यरोगादिनिवृत्तिवत् । यदि पुनरयं निर्बन्धः सर्वत्र विप्रकर्षिणामभावा सिद्धे 10स्तदा कृतकत्वधूमादेविनाशानलाभ्यां व्याप्तेरसिद्धेर्न 12कश्चिद्धेतुः । ततः शौद्धोदनिशिष्यकाणामनात्मनीनमेतत्,4, क्योंकि व्यापार, वचन, आकार विशेष का अभाव पाया जाता है । इस प्रकार से आगम के आधार से सिद्धांतवेत्ता दिद्वान् निर्णय कर लेते हैं । मीमांसक-व्यापारादि विशेष की उपलब्धि न होने से व्यापारादि को उत्पन्न करने में समर्थ चेतनादि गुण की व्यावृत्ति सिद्ध हो जाने पर भी व्यापारादि को उत्पन्न करने में असमर्थ चेतनादि गुण की व्यावृत्ति-अभाव असिद्ध है । अत: सम्पूर्ण रूप से चेतनादि का अभाव सिद्ध नहीं हो सकता है। जैन-यह कथन ठीक नहीं है, क्योंकि संसारी जीवों में व्यापार आदि अशेष कार्यों को उत्पन्न करने में असमर्थ ऐसे चेतनादि गुण ही असंभव हैं अथवा यदि आप मान लेवें तो उसमें शरीरी (संसारीपने ) का ही विरोध आ जावेगा अर्थात् वह मुक्तात्मा ही हो जावेगा। अतएव कार्य विशेष की उपलब्धि न होने से पृथ्वी आदि में संपूर्ण रूप से चेतनादि गुणों का अभाव सिद्ध ही है । जैसे कि मृतक शरीर एवं नीरोगी आदि में चैतन्य या रोग आदि का अभाव पाया जाता है। पुनः यदि आप ऐसा कहें कि अदश्य की अनुपलब्धि रूप हेतु से संपूर्ण रूप से पृथ्वी आदि में चेतन आदि गुण की व्यावृत्ति सिद्ध नहीं हो सकती है तो फिर सभी जगह विप्रकर्षा-काल से दूरवर्ती और वेद के कर्ता आदि परोक्ष पदार्थों के अभाव को भी आप सिद्ध नहीं कर सकेंगे। प्रत्युत आप (मीमांसक) के यहाँ इनका सदभाव ही सिद्ध हो जावेगा। तथा कृतकत्व हेतु को विनाश-अनित्य के साथ और धूम आदि की अग्नि के साथ व्याप्ति भी नहीं हो सकेगी। अर्थात् "जो नश्वर नहीं है वह कृतक भी नहीं है" और "जहाँ अग्नि नहीं है वहाँ धूम भी नहीं" इस प्रकार व्यतिरेक रूप से व्याप्ति नहीं बन सकेगी। पुनः कोई भी हेतु साध्य को सिद्ध करने में समर्थ सच्चा हेतु नहीं हो सकेगा। अर्थात् 1 ज्ञान । सुखदुःखादि । (ब्या० प्र०) 2 मुक्तत्वप्रसंगः । (ब्या० प्र०) 3 मुक्तात्मवत् । 4 कार्य = व्यापारादि । 5 आरोग्यशरीर । (ब्या० प्र०) 6 अदृश्यानुपलम्भात्सर्वात्मना चेतनादिगणव्यावत्तिर्न सिध्यत्येवेति । 7 आग्रहः । बौद्धमतमाश्रित्य मीमांसकस्तं निराकरोति । (ब्या० प्र०) 8 रामरावणवेदक/दीनाम् । 9 किन्तु भावसिद्धेरेव मीमांसकस्य स्यात् । 10 जैनः । 11 यद्विनाशि न भवति तत्कृतकं न भवति, यत्राग्निर्नास्ति तत्र धमोपि नास्तीति च व्यतिरेकव्याप्तेरसिद्धेः। 12 बौद्धमतेऽदृश्यानुपलम्भादभावसिद्धिर्नास्ति ततः परस्परमसंस्पृष्टानां परमाणूनां विकल्पबुद्धावप्रतिभासनात्तेषामभावासिद्धिः। 13 (जैमिनीयानाम्) मीमांसकानाम् । 14 बौद्धमतेऽदृश्यानुपलंभादभावस्य सिद्धिर्नास्ति परस्परमसंपृष्टानां विशरारूणां परमाणनां विकल्पबुद्धी अप्रतिभासनात्तेषामभावासिद्धेः । अन्यथा । शौद्धोदनिशिष्यकत्वं । (ब्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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