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________________ सर्वज्ञसिद्धि ] प्रथम परिच्छेद [ २६७ विशेषानुपलब्धेः । सम्यग्वैद्यशास्त्रभूततन्त्रादिसमयवशादत्यन्ताभ्यस्तचैतन्यरोगादि कार्यविशेषाणां लोकानां तद्विवेकोपपत्तिः' इति । [ जैनाचार्या भस्मलोष्ठादीनचेतनान् साधयंति ] तदेतत्पृथिव्यादौ सर्वात्मना चेतनादिगुणव्यावृत्तावपि समानम् । नास्त्यत्र भस्मादिपृथिव्यादौ पृथिवीचेतनादिगुणः, + व्यापार व्याहाराकारविशेषव्यावृत्तेरिति 'समयवशात्तसिद्धान्तविल्लोको विवेचयति । स्यादाकूतं ते व्यापारादिविशेषस्यानुपलब्धे तज्जननसमर्थचेतनादिगुणव्यावृत्तिसिद्धावपि तज्जननासमर्थचेतनादिव्यावृत्त्यसिद्धेर्न सर्वात्मना यथा-"इस मृतक शरीर में चैतन्य नहीं है क्योंकि व्यापार व्याहार-वचन आकार विशेष की उपलब्धि नहीं हो रही है।" तथा कार्य विशेष की अनुपलब्धि कारण विशेष के अभाव के साथ अविनाभाव सम्बन्ध रखती है। जैसे-चन्दन आदि से उत्पन्न हुए सुगन्धित धूम की अनुपलब्धि उसके योग्य समर्थ चन्दन आदि की लकड़ी से होने वाली अग्नि के अभाव के साथ अविनाभाव सम्बन्ध को सिद्ध करती है । अर्थात् सुगन्धितधूम के अभाव में चंदनादि की अग्नि नहीं है ऐसा ज्ञान हो जाता है। उसी प्रकार दूसरा अनुमान "इस मनुष्य में ज्वरादि रोग नहीं है क्योंकि ऊष्णस्पर्श आदि विशेष की उपलब्धि नहीं हो रही है।" अथवा "इस व्यक्ति में भूत पिशाच, ग्रह आदि नहीं हैं क्योंकि उनके चेष्टा विशेष की उपलब्धि नहीं है।" मीमांसक-सम्यक् प्रकार से वैद्यकशास्त्र एवं भूत तंत्रादि शास्त्र के अतिशय रूप (विशेष रूप) अभ्यास से चैतन्य विशेष या रोगादि विशेष रूप कार्यों का विद्वान् लोग निर्णय कर लेते हैं। जैनाचार्य भस्म लोष्ठ आदि पृथ्वी को निर्जीव सिद्ध करते हैं। जैन-तो इसी प्रकार से पृथ्वी आदि में भी चैतन्य आदि गुणों की संपूर्ण रूप से व्यावृत्ति मानना समान ही है । तथाहि इस भस्मादि या पृथ्वी आदि में पृथ्वीकायिक आदि चैतन्य गुण नहीं हैं। 1 इतिविवेचयति । आशंक्य । (ब्या० प्र०) 2 इदं चैतन्यकार्यमिदं रोगादिकार्यमिति विवेको नास्तीत्याशंकायामाह । (ब्या० प्र०) 3 सम्यग्ज्ञान । (ब्या० प्र०) 4 ता । (ब्या० प्र०) 5 पूर्वोक्त मतम् । + दिल्ली अष्टशती अ, ब, स प्रति में, मु. अ. श. प्र. में, दिल्ली एवं ब्यावर अ. स. प्र. में व्यापार व्याहार"""'" विवेचयति' पंक्ति अष्टशती मानी गई एवं मु. अ. स. प्र. में नहीं मानी है। 6 व्याहारस्त्रसशरीरे गृह्यते । (ब्या० प्र०) 7 संकेत । (ब्या० प्र०) 8 भाट्टस्य । (ब्या० प्र०) 9 मीमांसकस्य। 10 तत् = व्यापारव्याहारादि। 11 सर्वे कर्मफलं मुख्यभावेन स्थावरास्त्रसाः । स कार्य चेतयंतेऽस्तप्राणत्वात् ज्ञानमेव च । सा चेतना कर्मफलसकार्यज्ञानचेतना भेदात् त्रेधा यद्येवं तहि कः कि प्राधान्येन चेतयते इत्याह । कर्मफलं-अव्यक्तसूखदुःखं । सकार्य-क्रियते इति कार्य बुद्धि सहितं । चेतयंते-अनुभवंति। अस्तप्राणत्वात-प्राणत्वं अतिक्रांता जीवा व्यहारेण जीवन्मुक्ताः परमार्थेन पर (ब्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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