SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 379
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६६ ] अष्टसहस्री [ कारिका ४[ अदृश्यपदार्थस्याभावं कथं भविष्यतीति शंकायां लौकिकजना अपि अदृश्यस्याभावं मन्यते एवेत्युत्तरं ] अदृश्या'नुपलम्भादभावा'सिद्धिरित्ययुक्तं, परचेतन्यनिवृत्ता वारेकापत्तेः', संस्कतणां पातकित्वप्रसङ्गाद्, बहुलमप्रत्यक्षस्यापि' रोगादेविनिवृत्तिनिर्णयात्। 'स्यान्मतं ते.. व्यापारव्याहाराकारविशेष व्यावृत्ति समयवशात्तादृशं लोको विवेचयति।-नास्त्यत्र मतशरीरे चैतन्यं व्यापारव्याहाराकारविशेषानुपलब्धेः, कार्यविशेषानुपलम्भस्य 1कारणविशेषाभावाविनाभावित्वात्, चान्दनादिधूमानुपलम्भस्य 14तत्समर्थचान्दनादिपावकाभावाविनाभावित्ववत् । तथा नास्त्यस्य रोगो ज्वरादिः, स्पर्शादिविशेषानुपलब्धेभूतग्रहादिर्वा5 चेष्टास्याद्वादियों के यहाँ स्वीकार की गई है क्योंकि "इस जगत में ऐसा कोई भी पुद्गल नहीं है कि जिसको जीवों ने अनेकों बार भोगकर न छोड़ा हो" इस प्रकार वचन पाये जाते हैं। इसलिये पृथ्वी आदि में चेतन आदि गुणों का अभाव प्रसिद्ध ही है क्योंकि अनुपलब्धि की अन्यथानुपपत्ति है अर्थात् मिट्टी के ढेले आदि में चेतनागुण का सद्भाव नहीं पाया जाता है। [ जो पदार्थ दिखते नहीं हैं उनका अभाव कैसे होगा ? इस पर जैनाचार्य का कहना है कि अदृश्य का भी अभाव आबाल गोपाल मानते हैं। ] शंका-आप अदृश्य पदार्थों की अनुपलब्धि से अभाव को सिद्ध नहीं कर सकते हैं। अर्थात् इस मकान में भूत नहीं है ऐसा कोई नहीं कह सकते हैं क्योंकि भूत व्यंतर आदि दिखते नहीं हैं वे अदृश्य हैं उनकी उपलब्धि हमें नहीं हो रही है इसलिए वे नहीं है यह कहना शक्य नहीं है। जो देखने योग्य दश्य पदार्थ हैं उन्हीं की ही उपलब्धि या अनुपलब्धि देखकर उनका सद्भाव या अभाव सिद्ध किया जा सकता है। समाधान-यह कहना भी ठीक नहीं है अन्यथा दूसरे के शरीर से चैतन्य आत्मा के निकल जाने पर भी शंका बनी ही रहेगी । पुनः उसके संस्कार करने वालों को पातकी कहने का प्रसंग आवेगा । प्रायः करके अप्रत्यक्ष (परोक्ष) भी रोगादि के अभाव का निर्णय किया ही जाता है ।* यदि आप ऐसा कहें कि व्यापार (क्रिया) वचन, आकार आदि जीवित की चेष्टा विशेष को व्यावृत्ति-अभाव के हो जाने से होने वाले चिन्ह विशेषों से यह शरीर मृतक हो चुका है, इसमें से चेतना निकल चुकी है यह शरीर अब निर्जीव है इस प्रकार से व्यवहारीजन निर्णय कर लेते हैं ।* 1 मीमांसकमनूद्य दूषयति । (ब्या० प्र०) 2 अदृश्यचेतनगुणः। 3 चेतनादिगुणस्य । 4 अदृश्यानुपलम्भस्याभावासाधकत्वे सति परशरीरगतचैतन्यस्य निवृत्तावप्यारेका स्यात् । 5 चैतन्यसद्भावशंका । (ब्या० प्र०) 6 दाहकानां । (ब्या० प्र०) 7 अदृश्यस्य । (ब्या० प्र०) 8 अभाव । (ब्या० प्र०) 9 खपुस्तके ते इति पदं नास्ति । + दिल्ली अष्टशती अ, ब, स प्रति में मुद्रित अ. श. में, दिल्ली एवं ब्यावर अ. स. प्रति में 'व्यापार..............."विवेचयति' पंक्ति अष्टशती मानी गई है, मुद्रित अ. स. में नहीं मानी है। 10 व्यापारविशेषश्चलनादिः । व्याहारविशेषो वचन विशेषः । आकारविशेषश्च । 11 समयः सङ्केतः। 12 चैतन्याभावविशिष्टम् । 13 कारणं =चैतन्यम् । 14 चंदनादिधूमजनन । (ब्या० प्र०) 15 नास्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy