SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 378
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सर्वज्ञसिद्धि ] प्रथम परिच्छेद [ २६५ स्याद्विशेषा'भावाद तोनैकान्तिको हेतुरित्यशिक्षितलक्षितं', + चेतनादिगुणव्यावृत्तेः सर्वात्मना पृथिव्या देर भिमतत्वात्'* । ननु च पृथिव्यादौ सर्वात्मना चेतनादिगुणप्रध्वंसाभावस्याभावाद्बुद्धिहान्यानकान्तिकमेवातिशायनमित्यप्यनवबोधविजृम्भितं, पृथिव्यादौ पुद्गले पृथिवीकायिकादिभिरात्मभिः शरीरत्वेन 11गृहीते स्वायुषः क्षयात्यक्ते चेतनादिगुणस्य व्यावृत्तेः सर्वात्मना प्रध्वंसाभावरूपत्वेन स्याद्वादिभिरभिमतत्वात्, "न हि स कश्चित्पुद्गलोस्ति यो न जीवरसकृद्भुक्तोज्झित:13'' इति वचनात् । 14 प्रसिद्धश्च पृथिव्यादौ चेतनादिगुणस्याभावः, 1 अनुपलम्भान्यथानुपपत्तेः । [ शंकाकार बुद्धि की तरतमता देखकर "अतिशायन हेतु" को व्यचिभारी कहता है किन्तु जैनाचार्य कहीं __ न कहीं बुद्धि का भी अभाव मान लेते हैं। ] शंका - आप दोष और आवरण को हानि को नि:शेष रूप से साध्य करने में "अतिशायन" हेतु देते हैं पुन: इसी “अतिशायन" हेतु से किसी न किसी जीव में बुद्धि का भी परिपूर्णतया अभाव क्यों न हो जावेगा ? क्योंकि इन दोनों में कोई अंतर नहीं है । इसलिए आपका हेतु अनेकांतिक है। समाधान-यह आपका कथन अशिक्षित रूप ही है क्योंकि पृथ्वी आदिकों में संपूर्ण रूप से चेतनादि गुणों की प्रध्वंसाभाव रूप व्यावृति होना हमें इष्ट ही है। शंका-पृथ्वी आदि में सम्पूर्ण रूप से चेतना गुणों का प्रध्वंसाभाव रूप अभाव नहीं होता है अतः बद्धि की हानि के साथ यह "अतिशायन" हेत व्यभिचारी है। अर्थात बुद्धि की हानि में "अतिशायन" हेतु पाया जाता है फिर भी संपूर्णतया पृथिवी आदि में चेतना गुणों का प्रध्वंसाभाव नहीं है अतः यह हेतु अनेकांतिक है। समाधान—यह कथन भी अज्ञान के विलास रूप ही है, पृथ्वी आदि रूप से परिणत हुए पुद्गल वर्गणाओं को पृथ्वीकायिक आदि नामकर्म के उदय सहित जीवों ने अपने शरीर रूप से ग्रहण किया पुनः अपनी-अपनी आयु कर्म के क्षय हो जाने पर उन पुद्गलमय पृथ्वी आदि को छोड़ दिया। उन पृथ्वी आदिकों में चेतनादि गुणों का सम्पूर्णतया प्रध्वंसाभाव रूप से अभाव हो जाता है यह बात हम 1 दोषावरणबुद्धीनामतिशायनगुणेन कृत्त्वा विशेषो यतो नास्ति। 2 यतो न हि बुद्धिपरिक्षयः। 3 भा। (ब्या० प्र०) +दिल्ली अष्टशती अ, ब, स प्रति में, मुद्रित अष्टशती में, दिल्ली एवं न्यावर अष्टसहस्री प्रति में "चेतनादि"................. मतत्वात पंक्ति 'अष्टशती' मानी गई है। मुद्रित अष्टसहस्री में अष्टशती नहीं मानी है। 4 प्रध्वंसाभावस्य । 5 आदिपदेन शरीरं गृह्यते, उत्तरत्र व्यापारव्याहारव्यावृत्तेरपि वक्ष्यमाणत्वात् । 6-रप्यभिमतत्वादिति पाठान्तरम् । 7 पृथिव्यां चेतनगुणव्यावृत्तिवर्तते एवातो नानेकान्तः । 8 सामस्त्येन । 9 चेतनादिगुणस्य तत्रात्यन्ताभावात् । 10 बुद्धिहानेरतिशायित्वेपि सर्वात्मना पृथिव्यादी चेतनादिगुणप्रध्वंसाभावो नास्ति, अतोनेकान्तः । 11 चैतन्यादुपचारादभिन्नत्वेन । (ब्या० प्र०) 12 सपक्षे सत्त्वं तस्य । (ब्या० प्र०) 13 पूर्व मुक्तः पश्चादुज्झितः । शरीरत्वेन । (ब्या० प्र०) 14 अनुमानतः । (ब्या० प्र०) 15 अन्यथा चेतनादिगुणसद्भावे तदभावोपलम्भाभावप्रसक्त्तः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy