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सर्वज्ञसिद्धि ]
प्रथम परिच्छेद
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२८६
[ कश्चित् कथयति काचिदेका हानिरेव वक्तव्या, किंतु जैनाचार्या प्रत्युत्तरयंति यत् दोषाववणयोमिथः
कार्यकारणभावोऽस्त्यवत उभये अपि वक्तव्ये स्तः । नन्वेवं निश्शेषावरणहानौ दोवहानेः सामर्थ्यसिद्धत्वाद्दोषहानौ वावरणहानेरन्य
भावार्थ-जैनाचार्यों ने यहाँ इस कारिका में 'आवरण' शब्द से पौद्गलिक द्रव्य कर्म को ग्रहण किया है एवं 'दोष' शब्द से कर्म के उदय से होने वाले राग, द्वेष, मोह, अज्ञान आदि भावकर्मों को लिया है और इन दोनों को जीव के रागादि रूप स्वपरिणाम एवं कर्मोदय रूप परपरिणाम के निमित्त से उत्पन्न हुये माना है ।
बौद्ध दोषों को स्वपरिणाम निमित्तक मानता है एवं आवरण नाम की चीज को मानता ही नहीं है। इस पर जैनाचार्यों का कहना है कि आवरण के बिना दोष कैसे उत्पन्न होंगे और यदि आवरण के बिना भी दोष हो सकते हैं तो सिद्धों में तो आवरण है नहीं उनके भी दोषों की उत्पत्ति होने लगेगी। अथवा जैसे जीव के ज्ञान, दर्शन, जीवत्व, आदि भाव स्वपरिणाम हैं तो उनका कभी भी नाश नहीं होता है तथैव अनादि काल से लगे हुये दोषों का भी कभी नाश नहीं होगा पुनः मुक्ति कैसे हो सकेगी? परन्तु ऐसा तो है नहीं। अतः दोष आवरण निमित्तक होते हैं और आवरण दोष निमित्तक होते हैं।
सांख्य कहता है कि अज्ञानादि दोष पर अर्थात् प्रधान के निमित्त से ही होते हैं क्योंकि ज्ञान, सख आदि भी प्रधान के ही धर्म हैं.प्रकृति को ही संसार होता है, प्रकृति को ही जन्म-मरण, सुख-दुःख, बंध-मोक्ष होता है। मतलब सांख्य के यहाँ प्रकृति रूप कर्मबंध प्रकृति के ही होता है पुरुष सर्वथा
, निर्गणी, निष्क्रिय माना गया है। आजकल भी कुछ लोगों का सिद्धांत है कि गाय के गले में रस्सी बांधी तो गाय का गला या गाय नहीं बंधी है किन्तु मात्र रस्सी से ही रस्सी बंधी है । यद्यपि यह दृष्टांत सत्य है फिर भी गाय बंधन में अवश्य है । वह अपने इष्ट स्थान पर जा नहीं सकती है एवं यह गाय का दृष्टांत सर्वथा लागू नहीं होता है। वास्तव में कर्म और आत्मा के प्रदेशों का एकक्षेत्रावगाही सम्बन्ध है एवं आत्मा के रागद्वेष आदि परिणामों से ही पुद्गल वर्गणायें कर्मरूप परिणत होती हैं और कर्म का उदय आने पर ही आत्मा के राग, द्वेष आदि परिणाम होते हैं। अतः इन दोष और आवरणों का परस्पर में कार्यकारण भाव निश्चित है । ये दोनों ही स्व पर के निमित्त से होते हैं। दोषों का स्वनिमित्त आत्मा है परनिमित्त पुद्गल कर्म हैं या विष, सर्प आदि बाह्य सामग्रियां हैं और आवरण के लिये स्वनिमित्त पुद्गल वर्गणायें हैं तथा परनिमित्त जीव के रागादि भाव हैं। [ किसी का कहना है कि दोष या आवरण दोनों में से किसी एक का ही अभाव कहना चाहिये किन्तु
जैनाचार्य दोष-आवरण में कार्यकरण भाव सिद्ध करके दोनों की हानि मान लेते हैं। ] प्रश्न-इस प्रकार दोष तो आवरण रूप द्रव्य कर्म के कार्य हैं अतः निश्शेष आवरण का अभाव
1 दोषस्यावरणकार्यत्वप्रतिपादनप्रकारेण । 2 कारणनाशे कार्यनाशनियमात् । 3 अत्रापि कारणनाशे कार्यनाशनियमो हेतुः।
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