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________________ अष्टसहस्त्री २८८ । [ कारिका ४- [ बौद्धो दोषान् स्वहेतुकान् सांख्यश्च परहेतुकानेव मन्यते किन्तु जैनाचार्या दोषानुभयहेतुकानेव मन्यते ] स्वपरिणामहेतुक एवाज्ञानादिरित्ययुक्तं, तस्य 'कादाचित्कत्वविरोधाज्जीवत्वादिवत् । 'परपरिणामहेतुक एवेत्यपि न व्यवतिष्ठते, मुक्तात्मनोपि 'तत्प्रसङ्गात्, सर्वस्य कार्यस्योपादानसहकारिसामग्रीजन्यतयोपगमात्तथा प्रतीतेश्च । तथा च दोषो जीवस्य स्वपरपरिणामहेतुकः, कार्यत्वान्माषपाकवत् । [ बौद्ध दोषों को स्वहेतुक एवं सांख्य दोषों को परहेतुक ही मानता है किन्तु जैनाचार्य दोषों को उभय हेतुक ही मानते हैं। ] बौद्ध-अज्ञानादिक दोष स्वपरिणाम हेतुक ही होते हैं। जैन-यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि "अज्ञानादि दोषों के कादाचित्कपने का विरोध हो जावेगा जीवत्व आदि परिणाम के समान । भावार्थ-स्वपरिणाम नित्य होता है क्योंकि परिणाम गुण रूप होता है और वह परिणाम द्रव्य में संपूर्ण रूप से सदा ही पाया जाता है। "सकलपर्यायानवतिवं गुणत्त्वं" जो द्रव्य की संपूर्ण पर्यायों में अन्वय रूप से रहे उसे गुण कहते हैं इस लक्षण के अनुसार गुण नित्य माने गये हैं और • अज्ञानादि दोष तो अनित्य हैं क्योंकि वे सदा काल नहीं पाये जाते हैं मुक्त जीवों में उनका अभाव है परन्तु जीवत्व आदि परिणाम स्वपरिणाम होने से नित्य हैं और सर्वकाल अर्थात् मुक्तावस्था में भी पाये जाते हैं। यदि अज्ञानादि को स्वहेतुक ही माना जावेगा तो सदा ही बने रहने से इस जीव को कभी मुक्ति नहीं हो सकेगी। सांख्य-अज्ञानादि परपरिणाम प्रधान के निमित्त से ही हुये हैं। . जैन-यह भी ठीक नहीं है क्योंकि पर निमित्तक होने से मुक्तात्मा में भी अज्ञानादि दोषों का प्रसंग आ जावेगा। हम जैनों के यहाँ तो सभी कार्यों की उत्पत्ति उपादान और सहकारी कारण रूप उभय सामग्री से ही मानी गई है और प्रतीति भी उसी प्रकार से ही होती है। इसलिए "दोष जीव के स्वपरिणाम निमित्तक भी हैं एवं परपरिणाम निमित्तक भी हैं क्योंकि वे कार्य हैं उड़दपाक के समान" जिस प्रकार से उड़द या मूंग में अंतरंग में पकने की योग्यता है और बाहर में अग्नि जलादि के संयोग से पक जाती है किन्तु कोरडू मूंग में पकने की योग्यता न होने से अग्नि जलादिक के संयोग होने से भी नहीं पकती है। 1 सोगतमतम् । 2 स्वपरिणामस्तु नित्यः परिणामस्य गुणरूपस्य यावद्रव्यभावित्वे सति सकलपर्यायानुवत्तित्वं गुणत्वमिति लक्षणेन नित्यत्वप्रतिपादनात् । अज्ञानादिस्त्वनित्य इत्यतो विरोधः। 3 जीवत्वादिगुणस्य यथा कादाचित्कत्वविरोधोस्य नित्यत्वात् । 4 साङ्ख्यः। 5 जनः। 6 अन्यथा । (ब्या० प्र०) 7 अज्ञानादिकमरेणूनां मुक्तात्मनापि सम्बन्धप्रसङ्गात् । 8 जनमते एवमभिमतम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org ..
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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