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सर्वज्ञसिद्धि । प्रथम परिच्छेद
[ २८७ 'क्वचिनिश्शेषास्तीति साध्यते, वादिप्रतिवादिनोरत्र' विप्रतिपत्तेः । 'अतिशायनादिति हेतुः । क्वचित्कनकपाषाणादौ किट्टकालिकादिबहिरन्तर्मलक्षयो यथेति दृष्टान्तः, 'प्रसिद्धत्वात् । स हि कनकपाषाणादौ प्रकृष्यमाणो दृष्टो निश्शेषः । तद्वद्दोषावरणहानिरपि प्रकृष्यमाणाऽस्मदादिषु प्रतीता सती क्वचिन्निश्शेषास्तीति सिद्धयति । 'कः पुनर्दोषो नामावरणाद्भिन्नस्वभाव इति चेदुच्यते । 'वचनसामर्थ्यादज्ञानादिर्दोषः "स्वपर"परिणामहेतु। न हि दोष एवावरणमिति प्रतिपादने कारिकाया दोषावरणयोरिति द्विवचनं 14समर्थम् । ततस्तत्सामर्थ्यादावरणात्पौद्गलिकज्ञानावरणादिकर्मणो भिन्नस्वभाव एवाज्ञानादिर्दोषोऽभ्यूह्यते । तद्धेतुः पुनरावरणं कर्म जीवस्य पूर्वस्वपरिणामश्च । जीव विशेष में परिपूर्ण रूप से है यह यहाँ साध्य है । क्योंकि परिपूर्ण हानिरूप साध्य में वादी और प्रतिवादी दोनों को विवाद है अत: यह साध्य की कोटि में रखा गया है । सभी में हानि की अतिशय रूपता (तरतमता) देखी जाती है यह हेतु वाक्य है। किसी कनकपाषाण आदि में किट्टरूप बहिरंग तथा कालिमा रूप अन्तरंग मल का क्षय होता है यह दृष्टांत है यह भी प्रसिद्ध ही है क्योंकि वह किट्ट और कालिमा आदि मल का क्षय कनकपाषाण आदि में प्रकृष्यमाण अर्थात् वृद्धि को प्राप्त
तीन आदि ताव से लेकर सोलह ताव पर्यंत निःशेष रूप से क्षय को प्राप्त होता हुआ देखा जाता है।
उसी प्रकार से दोष और आवरण की हानि भी हम लोगों में प्रकर्षता को प्राप्त होती हुई प्रतीति में आ रही है और वह किसी न किसी पुरुष विशेष में निःशेष रूप से है ही है यह सिद्ध हो जाता है।
प्रश्न-यह दोष क्या है जो कि आवरण से भिन्न स्वभाव वाला है ?
उत्तर-कारिका गत "दोषावरणयोः" इस द्विवचन की सामर्थ्य से अज्ञानादि स्वरूप दोष आवरण से भिन्न ही हैं और वे स्वपर परिणाम हेतु से होते हैं। क्योंकि दोष ही आवरण है ऐसा मानने पर कारिका में द्विवचन नहीं बन सकता था अतः द्विवचन की सामर्थ्य से पौद्गलिक ज्ञानावरणादि कर्म रूप आवरण से भिन्न स्वभाव वाले ही अज्ञान, राग-द्वेष आदि दोष कहे जाते हैं ऐसा निर्णय करना चाहिये । उस दोष के कारण पुनः आवरण कर्म हैं और जीव के पूर्व संचित निजी रागादि परिणाम भी हैं।
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1 पुंसि । (ब्या० प्र०) 2 इष्टमबाधितमसिद्धं साध्यमिति वचनात् । 3 निःशेषहानी। 4 तारतम्येन । (ब्या० प्र०) 5 प्रसिद्धो दृष्टान्त इति वचनात् । 6 द्विवादिवर्णिकामारभ्य षोडशवणिकापर्यन्तं हीयमानम् । 7 काकुः । (ब्या०प्र०) 8 जनः। 9 दोषावरणयोरिति द्विवचनसामर्थ्यात् । 10 स्वपरौ जीवकर्मणी। 11 जीवकृतं परिणाम निमित्तमात्रं प्रपद्य पुनरन्ये । स्वयमेव परिणमंतेऽत्र पुद्गला: कर्मभावेन ॥ परिणममानस्य चितश्चिदात्मकैः स्वयमपि स्वकैर्भावः । भवति हि निमित्तमात्र पौद्गलिक कर्म तस्यापि ॥ (ब्या० प्र०) 12 बसः। (व्या० प्र०) 13 कारिकायां इति पा० । (ब्या० प्र०) 14 सदर्थम् । 15 रागद्वेषादिः ।
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