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[ कारिका ४
नादिसम्प्रदायो न संवादक : 1 प्रत्यक्षैकप्रमाणवादिसम्प्रदायस्तत्त्वोपप्लववादिसम्प्रदायो वा सर्वाप्तवादो' वा न प्रमाणभूतो व्यवतिष्ठते, ततः सुनिश्चितासंभवबाधकप्रमाणो भगवन् 'भवानेव भवभृतां 'प्रभुरात्यन्तिकदोषावरणहान्या साक्षात्प्रबुद्धाशेषतत्त्वार्थत्वेन च मुनिभिः 'सूत्रकारादिभिरभिष्यते । इति समन्तभद्राचार्यैनिरूपिते सति कुतस्तावदात्यन्तिकी दोषावरणहानिर्मयि' विनिश्चितेति भगवता पर्यनुयुक्ता इवाचार्याः प्राहुः । —
अष्टसहस्री
दोषावरणयोर्हानिनिश्शेषास्त्य तिशायनात्' । 'क्वचिद्यथा स्वहेतुभ्यो बहिरन्तर्मलक्षयः ॥ ४ ॥
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'दोषावरण सामान्ययोहनेः " प्रसिद्धत्वाद्धमित्वं न विरुध्यते । तत्प्रसिद्धिः पुनरस्मदादिषु देशतो निर्दोषत्वस्य ज्ञानादेश्च कार्यस्य निश्चयाद्भवत्येव, अन्यथा तदनुपपत्तेः । सा
ववादी (शून्यवादी) संप्रदाय वाले या सभी को आप्त मानने वाले वैनयिक मतानुयायी जन प्रमाणभूत नहीं हैं । इसीलिये सुनिश्चित रूप से असंभव है बाधक प्रमाण जिसमें ऐसे हे भगवन् ! आप ही संसारी जीवों के स्वामी हैं क्योंकि अत्यन्त रूप से दोष एवं आवरण की हानि होने से तथा साक्षात् अशेष तत्त्वों के ज्ञाता होने से सूत्रकार आदि मुनि पुंगवों द्वारा आपकी ही स्तुति की जाती है । इस प्रकार श्री समंतभद्र आचार्य के द्वारा निरूपण करने पर आपने मुझमें किस प्रकार से दोषावरण की हानि आत्यंतिक रूप से निश्चित की है । इस प्रकार से भगवान् के द्वारा प्रश्न किये जाने पर ही मानों आचार्य कहते हैं
कारकार्थ - किसी जीव में दोष और आवरण की हानि परिपूर्ण रूप से हो सकती है क्योंकि अन्यत्र उसका अतिशयपना पाया जाता है। जिस प्रकार से अपने हेतुओं के द्वारा कनकपाषाणादि में बाह्य एवं अंतरंग मल का पूर्णतया अभाव पाया जाता है ||४||
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दोष सामान्य एवं आवरण सामान्य की हानि प्रसिद्ध है अतः इस अनुमान में "धर्मी" असिद्ध नहीं है । उसकी प्रसिद्धि हम लोगों में एक देश रूप निर्दोषपना और ज्ञानादि रूप कार्य के निश्चित होने से होती है अन्यथा दोष, आवरण की हानि के अभाव में हम लोगों में कुछ-कुछ अंशों में निर्दोषत एवं क्षयोपशम जन्य कुछ ज्ञान की प्रकटता रूप कार्य नहीं हो सकेगा और वह हानि किसी न किसी
1 प्रमाणभूतः । 2 सर्वे आप्ता इति वादो यस्य स सर्वाप्तवादो वैनयिकः । 3 वर्द्धमानः । 4 अन्तमतिक्रान्तः कालोऽत्यन्तः । तस्मै प्रभवतीति आत्यन्तिकी, यस्या हानेः पुनर्नाशो न विद्यते तथेत्यर्थः । 5 उमास्वातिपादः । ( ब्या० प्र० ) 6 अर्हति । 7 तरतमभावेन हीयमानत्वात् । 8 क्वचिच्छब्दः पूर्वार्द्धपि सम्बन्धनीयः । क्वचिच्छब्देन कनकोपलो दृष्टान्ते अर्हश्च दान्ते ग्राह्यः । 9 दोष: - भावकर्म | आवरणं - द्रव्यकर्म । ( व्या० प्र० ) 10 दोषसामान्यमावरणसामान्यं च तयोः । 11 प्रसिद्धो धर्मीति वचनात् । 12 दोषावरणयोरभावे निर्दोषत्वं ज्ञानादि कार्यं च नोपपद्यते ।
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