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________________ २६० ] तरहानिरेव निश्शेषतः साध्येति चेन्न, दोषावरणयोर्जीवपुद्गलपरिणामयोरन्योन्यकार्यकारणभावज्ञापनार्थत्वादुभयहाने निश्शेषत्व साधनस्य' । दोषो हि तावदज्ञानं ज्ञानावरणस्योदये जीवस्य स्याददर्शनं दर्शनावरणस्य, मिथ्यात्वं दर्शनमोहस्य, विविधमचारित्रमनेकप्रकारचारित्रमोहस्य, अदानशीलत्वादिर्दानाद्यन्तरायस्येति, ' तथा ज्ञानदर्शनावरणे 'तत्प्रदोष - 'निन्हवमात्स' यन्त' रायाऽऽ' सादनोपघातेभ्यो 10 "जीवमास्रवतः12, केवलिश्रुतसंघधर्मदेवावर्णवादाद्दर्शनमोहः,14 कषायोदयात्तीत्रपरिणामाच्चारित्रमोहः, विघ्नकरणादन्तराय इति अष्टसहस्री [ कारिका ४ हो जाने पर दोष की हानि अर्थापत्ति रूप सामर्थ्य से ही सिद्ध हो जाती है क्योंकि कारण के नाश हो जाने पर कार्य का नाश अवश्यंभावी है । अथवा दोष का पूर्णतया अभाव होने पर आवरण का अभाव स्वयमेव निश्चित है क्योंकि दोष रूप भावकर्म से ही आवरण रूप द्रव्य कर्म बंधते हैं और कारण रूप दोष के नाश होने पर कार्यभूत द्रव्यकर्म रूप आवरण का स्वयमेव ही नाश प्रसिद्ध है । इसलिये दोनों में से किसी एक की हानि ही निःशेषतः सिद्ध करना चाहिये । [ अनादिकाल से दोष आवरणनिमित्तक हैं एवं आवरण दोषनिमित्तक हैं दोनों का परस्पर में कार्यकारण भाव है ] उत्तर - यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि जीव और पुद्गल के परिणाम स्वरूप दोष और आवरण में परस्पर में कार्य कारण भाव पाया जाता है अतः परस्पर में दोनों के कार्य कारण भाव को सिद्ध करने के लिए ही दोनों की हानि निःशेष रूप से साध्य (सिद्ध) करना इष्ट है क्योंकि दोष अज्ञान को कहते हैं और वह जीव के ज्ञानावरण कर्म के उदय के होने पर होता है तथा जीव के दर्शनावरण कर्म के उदय होने पर अदर्शन, दर्शनमोहनीय कर्म के उदय में मिथ्यात्व, अनेक भेदरूप चारित्रमोहनीय कर्म के उदय होने पर अनेक प्रकार का अचारित्र - अविरति रूप परिणाम एवं दानादि अन्तराय के उदय से अदानशीलत्व - दान नहीं देना आदि रूप दोष पाये जाते हैं । दोष के प्रति आवरण कारण हैं ऐसा प्रतिपादन करके अब आचार्य यह बताते हैं कि आवरण के लिए दोष कारण हैं । Jain Education International 1 हानिनिःशेषत्व इति पा. । ( ब्या० प्र० ) 2 साध्य | सिद्धेः । जीवपुद्गल परिणामयोरन्योन्यं कार्यकारणभावः सिद्धश्चेत् तज्ज्ञापनार्थमेव तत्साधनस्य युक्तं नान्यथा अतः कथं तत्प्रसिद्धिरित्या कायां दोषो हि तावदित्यारभ्य तत्त्वार्थप्ररूपणादिति पर्यंतं ग्रंथमाहुः । (ब्या० प्र० ) 3 अन्योन्यकार्यकारणभावज्ञापनार्थं ह्य भयहा निनिश्शेषत्वसाधनम् । 4 दोषं प्रत्यावरणस्य कारणत्वं प्रतिपाद्येदानीमावरणं प्रति दोषस्य कारणत्वमावेदयन्ति । 5 तत्प्रदोषो ज्ञानदर्शनप्रद्वेषः । 6 निन्हवमाच्छादनम् । 7 मात्सर्य निन्दा तिरस्कारश्च । 8 विघ्नकरणमन्तरायः । 9 आसादनं शास्त्रादेविराधनम् । 10 अध्येतॄणां पीडाकरणमुपघातः । 11 एभ्यः कारणेभ्यो ज्ञानदर्शनावरणद्वयं जीवेन सह बन्ध याति । 12 क्रियापदस्य द्विः । (ब्या० प्र०) 13 हेतुतः । 14 आस्रवतीत्यध्याहार्यं पदम् । - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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