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________________ सर्वज्ञ अतींद्रिय ज्ञानी है ] प्रथम परिच्छेद [ २७६ [ सर्वज्ञभगवतो ज्ञानमिद्रियानपेक्षमतींद्रियमस्त्येव ] अत एवाक्षानपेक्षाऽञ्जनादिसंस्कृतचक्षुषो यथालोकाऽनपेक्षा* । अत एव । कुत एव ? साकल्येन विरतव्यामोहत्वादेव सर्वदर्शनादेव वा । यो हि देशतो विरतव्यामोहः किञ्चिदेवास्फुटं पश्यति वा तस्यैवाक्षापेक्षा लक्ष्यते न पुनस्तद्विलक्षणस्य प्रक्षीणसकलव्यामोहस्य सर्वदर्शिनः, सर्वज्ञत्वविरोधात् । न हि सर्वार्थः सकृदक्षसम्बन्धः संभवति साक्षात्परम्परया वा । किसी को ज्ञान निकटवर्ती पदार्थों का ही होता हुआ देखा जाता है। तब आचार्य ने कहा कि भाई ! निकटवर्ती पदार्थों से ज्ञान का अन्वय एवं दूरवर्ती पदार्थों से ज्ञान का व्यतिरेक नहीं है मतलब पदार्थ निकटवर्ती होवें तभी उनका ज्ञान होवे, वे दूरवर्ती होवें तो उनका ज्ञान नहीं होवे ऐसा कोई नियम नहीं है। देखो! निकटवर्ती आंख में लगे हये अंजन का ही उस आंख को ज्ञान नहीं हआ है और दूरवर्ती सूर्य-चन्द्र दिख गये। इसलिये ज्ञान के होने में मुख्य कारण है ज्ञानावरण का क्षयोपशम अथवा क्षय । इसी का नाम योग्यता है । आप शास्त्र में जो प्रकरण पढ़ रहे हैं यदि उसमें से एक पंक्ति के विषय में ज्ञानावरण का क्षयोपशम नहीं है तो आपको उसका अर्थ समझ में नहीं आवेगा। यदि क्षयोपशम हो गया है तो अर्थ बिना बताये भी समझ में आ जावेगा और जब पूर्णतया ज्ञानावरण का अभाव ही हो जाता है तब यह आत्मा संपूर्ण लोकालोक को युगपत् अवलोकित कर लेता है । [ सर्वज्ञ भगवान् का ज्ञान इन्द्रियों की सहायता से रहित अतींद्रिय है ] अतएव सर्वज्ञ भगवान् को इन्द्रियों की अपेक्षा नहीं है जैसे अञ्जनादि से संस्कृत चक्षु को आलोक-प्रकाश की अपेक्षा नहीं है* । इसी हेतु से वे सर्वज्ञ हैं। शंका-किस हेतु से? जैन-सम्पूर्णतया मोह से रहित हो जाने से ही अथवा सर्वदर्शी होने से ही वे सर्वज्ञ हैं क्योंकि जो एक देश से मोहरहित है अथवा कुछ अस्पष्ट को ही देखता है उसको ही इन्द्रियों की अपेक्षा देखी जाती है, किन्तु उससे विलक्षण सम्पूर्ण मोह से रहित सर्वदर्शी को इन्द्रियों की अपेक्षा नहीं है अन्यथा इन्द्रियों की अपेक्षा मानने पर तो सर्वज्ञपने का ही विरोध हो जावेगा क्योंकि सभी पदार्थों के साथ युगपत् इन्द्रिय का संबंध साक्षात् अथवा परम्परा से संभव नहीं है। भावार्थ-"सर्वज्ञ भगवान् को इन्द्रियों की अपेक्षा से रहित अतींद्रियज्ञान है क्योंकि वे संपूर्णतया मोह से रहित हैं अथवा सर्वदर्शी हैं।" इस प्रकार से जैनाचार्यों ने सर्वज्ञ भगवान् को अतींद्रियज्ञानी सिद्ध करने के लिये दो हेतु दिये हैं क्योंकि जिनके एक देश रूप से मोह का अभाव हुआ है और जिनका ज्ञान अविशद-अस्पष्ट है उनका ज्ञान इन्द्रियों की सहायता अवश्य रखता है। ये इन्द्रियों की सहायता लेने वाले मति और श्रुत रूप दो ज्ञान प्रसिद्ध हैं, जिन्हें सिद्धान्तशास्त्रों में परोक्ष कहा है और 1 अर्हत्प्रत्यक्षस्य। 2 अर्हतः प्रत्यक्षमक्षानपेक्षं । (ब्या० प्र०) 3 अन्यथा (अक्षापेक्षत्वे)। 4 नयनघटयोः साक्षात्तद्गतरूपनयनयोः संबंधः परंपरया संयुक्तसमवेतत्वात् । (ब्या० प्र०), Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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