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________________ २८० ] अष्टसहस्री [ कारिका-३ 'ननु चावधिमनःपर्ययज्ञानिनोर्देशतो विरतव्यामोहयोरसर्वदर्शनयोः कथमक्षानपेक्षा संलक्षणीया ? 'तदावरणक्षयोपशमातिशयवशात्स्वविषये परिस्फुटत्वादिति ब्रमः । न चैवं 'साकल्येन विरतव्यामोहत्वस्य सर्वदर्शनस्य वानकान्तिकत्वं शङ्कनीयं, विपक्षेक्षापेक्षे मतिश्रुतज्ञाने 'तदसंभवात् । अवधिमनःपर्ययज्ञाने तदसंभवात् 'पक्षाव्यापकत्वादहेतुत्वमिति चेन्न, यहाँ न्यायशास्त्रों में सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कह दिया है । इन्द्रियज्ञान से कोई भी सर्वज्ञ इसलिये नहीं बन सकता है कि इन्द्रियाँ वर्तमान कालीन सीमित और रूपी पदार्थों को ही ग्रहण कर सकती हैं। इसी विषय में राजवार्तिक ग्रन्थराज में श्री अकलंक देव ने बहुत ही सुन्दर विवेचन किया है । यथा __ "इन्द्रियनिमित्तं ज्ञानं प्रत्यक्षं, तद्विपरीतं परोक्षं, इत्यविसंवादिलक्षणमिति चेत्, न; आप्तस्य प्रत्यक्षाभाव प्रसंगात्" अर्थात् कोई कहता है कि "इन्द्रियव्यापार जन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष और इन्द्रिय व्यापार की अपेक्षा न रखने वाले ज्ञान को परोक्ष कहना चाहिये। सभी वादी प्रायः इसमें एकमत हैं।" इस आशंका पर जैनाचार्य समाधान करते हैं कि इन्द्रियजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष मानने से आप्त -- सर्वज्ञ को प्रत्यक्षज्ञान नहीं हो सकेगा, सर्वज्ञता का लोप हो जायेगा क्योंकि सर्वज्ञ को इन्द्रिय जन्य ज्ञान नहीं होता है । आगम से अतींद्रिय पदार्थों का ज्ञान मानकर सर्वज्ञता का समर्थन करना तो युक्ति-युक्त नहीं है, क्योंकि आगम वीतराग, प्रत्यक्षदर्शी पुरुष के द्वारा प्रणीत होता है । जब अतींद्रिय प्रत्यक्ष सिद्ध नहीं है तब अतींद्रिय पदार्थों में आगम का ज्ञान प्रमाणीक कैसे बन सकेगा? आगम अपौरुषेय है यह बात तो असिद्ध ही है क्योंकि पुरुष प्रयत्न के बिना उत्पन्न हुआ कोई भी विधायक शब्द प्रमाण नहीं है। अतः हिंसादि का विधान करने वाला वेद प्रमाण नहीं हो सकता है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि सर्वज्ञ का ज्ञान अतींद्रिय है, इन्द्रियजन्य नहीं है। शंका-पूनः एक देश मोहरहित, असर्वदर्शी, अवधिज्ञानी और मनःपर्यय ज्ञानियों को इंद्रियों की अपेक्षा नहीं है यह बात कैसे जानी जाती है ? अर्थात् सिद्धांत में अवधि-मनःपर्यय ज्ञान को अतीद्रिय कहा है यह कैसे बनेगा? • समाधान-उन उन–अवधि ज्ञानावरण और मनःपर्यय ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम के अतिशय के निमित्त से ये दोनों ही ज्ञान अपने-अपने विषय में प्रस्फुट-स्पष्ट हैं ऐसा हम मानते हैं। इस प्रकार से संपूर्णतया मोहरहित हेतु अथवा सर्वदर्शी हेतु अनेकांतिक हो जाता है ऐसी भी आशंका नहीं करना क्योंकि इंद्रियों की अपेक्षा रखने वाले मति श्रुतज्ञान विपक्ष हैं उन दोनों ज्ञानों में ये दोनों हेतु असंभवी हैं। 1 परः। 2 सिद्धान्ती। 3 साकल्येन विरतव्यामोहत्वसर्वदर्शनाभ्यां विनापि अवधिमन:-पर्यययोरक्षानपेक्षत्वप्रकारेण। 4 देशतो विरतव्यामोहत्वस्याक्षानपेक्षत्वव्यभिचारीप्रकारेण । (ब्या० प्र०) 5 हेतोः । (ब्या० प्र०) 6 तस्य = विरतव्यामोहत्वस्य सर्वदर्शनस्य वा हेतोः। 7 अवधिमनःपर्यययोरपि पक्षान्तर्भावं ज्ञात्वा साकल्येन विरतव्यामोहत्वस्य सर्वदर्शनस्य वा हेतोः पक्षाव्यापकत्वं नाम हेत्वाभासत्वं दोषं समर्थयति परः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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