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अष्टसहस्त्री
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[ कारिका ३मित्ययुक्त, प्रत्यासत्तेर्ज्ञानाकारणत्वाद्विप्रकर्षस्य चाज्ञानानिबन्धनत्वात्, तद्भावेपि ज्ञानाज्ञानयोरभावान्नयन तारकाञ्जनवच्चन्द्रार्कादिवच्च । योग्यतासद्भावेतराभ्यां ज्ञानाज्ञानयोः क्वचिद्भावे योग्यतैव ज्ञानकारणं, प्रत्यासत्तिविप्रकर्षयोरकिञ्चित्करत्वात् । सा पुनर्योग्यता देशतः कात्य॑तो वा व्यामोहविगमस्तत्प्रतिबन्धि कर्मक्षयोपशमक्षयलक्षणः । इति साकल्येन विरतव्यामोहः सर्वं पश्यत्येव । तदुक्तज्ञो ज्ञेये कथमज्ञः स्यादसति प्रतिबन्धने । दाह्यग्निर्वाहको न11 स्यादसति प्रतिबन्धने1 ॥१॥ इति।
संपूर्णतया देखता है, किन्तु दूरवर्ती पदार्थों को नहीं जान सकता है।
जैन-यह कथन अयुक्त है क्योंकि प्रत्यासत्ति-निकटता ज्ञान का कारण नहीं है एवं विप्रकृष्टता अज्ञान का कारण नहीं है क्योंकि उन प्रत्यासत्ति और विप्रकर्ष के सद्भाव में भी ज्ञान और अज्ञान का अभाव है जैसे नयन तारका का अंजन और चन्द्र सूर्यादि का ज्ञान । अर्थात् नेत्र में अंजन के साथ प्रत्यासत्ति-निकट संबंध होने पर भी अंजन का ज्ञान नहीं होता है, किन्तु चन्द्र सूर्यादि विप्रकृष्ट -दूरवर्ती को भी नेत्र जान लेता है। अतः निकट संबन्धरूप प्रत्यासत्ति से ज्ञान का कोई अविनाभाव संबंध नहीं है और जहाँ दूरवर्ती पदार्थ हैं वहाँ ज्ञान न होवे ऐसा दूरवर्ती पदार्थ से ज्ञान का व्यतिरेक भी नहीं है।
योग्यता के सद्भाव और अभाव से किसी भाव-पदार्थ के ज्ञान और अज्ञान में ज्ञानावरण के विशेष अभाव रूप योग्यता ही ज्ञान का कारण है क्योंकि प्रत्यासत्ति और विप्रकर्ष दोनों अकिंचित्कर ही हैं । अर्थात् प्रत्यासत्ति के अभाव में विप्रकर्ष का सद्भाव होने पर भी ज्ञान उत्पन्न हो जाता है और निकटवर्ती का ज्ञान नहीं भी होता है अतः ये दोनों बातें अकिंचित्कर हैं। - वह योग्यता एक देश से अथवा संपूर्ण रूप से मोह के अभाव रूप और आत्मा के प्रतिबंधी ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम और क्षय लक्षण रूप है। इस प्रकार से सम्पूर्ण रूप से मोह रहित पुरुष सभी को देखते ही हैं। कहा भी है
श्लोकार्थ-प्रतिबंधक कर्म के न होने पर सर्वज्ञ भगवान् ज्ञेय पदार्थों को जानने में अज्ञानी कैसे रहेंगे? मणि मंत्रादि प्रतिबंधक-रुकावट डालने वाले कारणों के न होने पर भी अग्नि दाह्यजलने योग्य पदार्थ को जलाती नहीं है क्या? अपितु जलाती हुई ही देखी जाती है। - भावार्थ-मीमांसक का कहना है कि किसी आत्मा के मोह और ज्ञानावरण कर्म का भले ही नाश हो जावे किंतु वह आत्मा सूक्ष्म, अंतरित और दूरवर्ती सभी पदार्थों को कैसे जानेगा? क्योंकि
1 जैनः । 2 तयोः-प्रत्यासत्तिविप्रकर्षयोः। 3 नयनतारकाया अञ्जनेन सह प्रत्यासत्तावपि न ज्ञानोदयोऽञ्जनस्य । चन्द्रार्कादीस्तु विप्रकृष्टानपि जानाति नयनतारका यथा। 4 योग्यता सद्भावे । का द्विः । (ब्या० प्र०) 5 वस्तुनि । (ब्या० प्र०) 6 ज्ञानावरणविशेषाभावरूपा। 7 प्रत्यासत्यभावे विप्रकर्षसद्भावेपि ज्ञानोत्पादात् । 8 ता। 9 सर्वज्ञः । 10 प्रतिबद्धरि इति पा० । (ब्या० प्र०) 11 कथं न स्यादपि तु स्यादेव। 12 मणिमन्त्रादौ । 'प्रतिबद्धरि' इत्यपि पाठः।
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