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________________ सर्वज्ञसिद्धि ] प्रथम परिच्छेद [ मोहरहितोपि आत्मा विप्रकृष्टपदार्थान् ज्ञातुं न शक्नोति ] 'देशकालतः 'प्रत्यासन्नमेव पश्येद्विरतव्यामोहोपि सर्वात्मना, न पुनविप्रकृष्ट [ २७७ जा सकता है, अतींद्रिय प्रत्यक्ष से नहीं । इस पर जैनाचार्य ने कहा कि भैया ! जब तुम वेदवाक्यों से किसी आत्मा को अतींद्रिय पदार्थों का जानने वाला मान लेते हो और पुनः आत्मा को ज्ञान स्वभाव नहीं मानते हो तो क्या जब आत्मा में ज्ञान नहीं हुआ है पुनः अचेतन वेदों का ज्ञान उन अचेतन वेदों को है क्या बात है ? समझ में नहीं आता कि आप वेदवाक्यों से किसी को सभी पदार्थों का ज्ञान होना भी मान रहे हैं और आत्मा के ज्ञान स्वभाव का निषेध भी कर रहे हैं यह बात आपकी स्वस्थावस्था को नहीं बताती है किंतु आपकी अस्वस्थता को ही बता रही है । हम जैनों का तो कहना है कि संसार में प्रत्येक आत्मा के साथ ज्ञानावरण आदि कर्म लगे हुये हैं जो कि ज्ञान को ढक रहे हैं-ज्ञान पर आवरण डाल रहे हैं एवं मोहनीय कर्म भी ज्ञान को विपरीत या संशयादि रूप से अज्ञान बना रहा है। जैसे कड़वी तूंबड़ी के संसर्ग से दूध दूषित हो जाता है उसी प्रकार से आत्मा का पूर्ण शुद्ध ज्ञान स्वभाव भी मोह कर्म से अज्ञान रूप एवं ज्ञानावरण से अल्पज्ञान रूप हो रहा है। यह आत्मा ज्ञान स्वभाव वाला ही है तभी तो वेद या आगमवाक्यों से यह संपूर्ण त्रैकालिक सूक्ष्मादि पदार्थों को भी जान लेता है । केवलज्ञान होने के पहले आत्मा को आगम से पूर्ण श्रुतज्ञान जब हो जाता है। तब वह श्रुतज्ञान के बल से संपूर्ण पदार्थों को जानते हुये श्रुतकेवली कहलाता है यह बात हमारे यहाँ भी मान्य है । शायद आप श्रुतकेवली तक तो मान रहे हैं किंतु पूर्णज्ञानी (केवली ) नहीं मान रहे हैं फिर भी यदि आत्मा ज्ञान स्वभाव वाला न होता तब श्रुत से भी उसे ज्ञान होना असंभव था जैसे कि चौकी आदि को श्रुतशास्त्र का संसर्ग होने से भी ज्ञान नहीं होता है अतः आपको आत्मा का ज्ञान स्वभाव मान ही लेना चाहिये । हम जैनों के यहाँ तो ज्ञान को आत्मा से अभिन्न ही माना है केवल लक्षण आदि से ही उसमें भेद स्थापित किया जा सकता है क्योंकि ज्ञान को छोड़कर तो आत्मा का अस्तित्व ही सिद्ध नहीं हो सकेगा । हाँ ! ये कर्म भी अनादि काल से इस जीव के साथ संबंधित हैं अतएव संसार में यह जीव अल्पज्ञानी आदि देखा जाता है । जब पुरुषार्थ से यह ज्ञानावरण आदि घातिया कर्मों का जड़मूल से विनाश कर देता है तब इस आत्मा में पूर्णज्ञान गुण प्रगट हो जाता है । मोहनीय कर्म का पूर्णतया नाश दसवें गुणस्थान में हो जाता है फिर भी ज्ञानावरण आदि कर्म के निमित्त से यह जीव ग्यारहवें, बारहवें गुणस्थान में छद्मस्थ ही कहलाता है । बारहवें गुणस्थान के अन्त में जब ज्ञानावरण आदि तीनों घातिया कर्मों का नाश हो जाता है तब तेरहवें गुणस्थान में पूर्णज्ञान प्रकट होकर केवली बन जाता है। [ मोह रहित भी आत्मा तीन विप्रकृष्ट पदार्थों को नहीं जान सकता है ] मीमांसक — मोह रहित भी पुरुष देश और काल से प्रत्यासन्न - निकटवर्ती पदार्थों को ही 1 मीमांसकशङ्का । 2 समीपतामापन्नम् । 3 दूरम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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