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________________ २७२ ] अष्टसहस्री [ कारिका ३बर्बाधकनिर्णयात्त्वसत्तायाम् । उभयनिर्णयस्तु न संभवत्येव क्वचित्', व्याघातात् साधकबाधकाभावनिर्णयवत् । साधकानिर्णयात्पुनः सत्तायामारेका स्याबाधकानिर्णयादसत्तायामिति विपश्चितामभिमतो न्यायः । ततो भवभृतां प्रभौ सुनिश्चतासम्भवबाधकप्रमाणत्वं सत्तायाः साधकं सिध्द्यत् सुनिश्चितासंभवत्साधकप्रमाणत्वं व्यावर्त्तयत्येव, विरोधात् । नैवमेतत्तत्र सिध्यति येन सुनिश्चितासंभवबाधकप्रमाणत्वस्य व्यावतकं स्यात् । 'ततः सिद्धो भवभृतां प्रभुः सर्वज्ञ एव । । जावेगा । अर्थात् सर्वज्ञ के अस्तित्व को सिद्ध करने वाला भी प्रमाण मौजूद है एवं सर्वज्ञ के नास्तित्व को बतलाने वाला-सर्वज्ञ को बाधित करने वाला प्रमाण भी मौजूद है पुनः सर्वज्ञ है या नहीं ? यह शंका सहज ही बनी रहेगी इसका निवारण कैसे हो सकेगा? जैन-यह कथन भी अयुक्त है क्योंकि साधक और बाधक प्रमाण का निर्णय होने से तो सर्वज्ञ के सद्भाव और अभाव में विसंवाद है नहीं प्रत्युत इस प्रकार का निर्णय न होने से ही शंका हो सकती थी । देखो ! सर्वज्ञ के साधक प्रमाण का निर्णय होने से तो सर्वज्ञ के अस्तित्व में विसंवाद नहीं है एवं सर्वज्ञ के बाधक प्रमाण का निर्णय होने से उस सर्वज्ञ के नास्तित्व में विसंवाद नहीं है किंतु एक साथ दोनों का निर्णय तो किसी भी वस्तु में संभव ही नहीं है क्योंकि साधक और बाधक दोनों का एकत्र रहना विरुद्ध है जैसे एक ही पदार्थ एक साधक और बाधक के अभाव का निर्णय होना विरुद्ध है उसी प्रकार एक ही वस्तु में साधक एवं बाधक का सद्भाव होना भी विरुद्ध है । साधक का निर्णय न होने से सर्वज्ञ की सत्ता में शंका हो सकती है और बाधक का निर्णय न होने से सर्वज्ञ की असत्ता में आशंका होती है, इस प्रकार से विद्वानों का न्याय ही सर्वत्र अभिमत-मान्य है। मतलब दोनों में से कोई एक ही शंका हो सकती है दोनों शंकायें एक साथ असंभव हैं । इसलिये संसारी जीवों के स्वामी में “सुनिश्चितासंभवद् बाधक प्रमाण" सर्वज्ञ की सत्ता को सिद्ध करता हुआ "सुनिश्चितासंभवसाधक प्रमाण रूप हेतु" को व्यावृत्त-निराकृत ही कर देता है क्योंकि दोनों का परस्पर में विरोध है । अर्थात् जहाँ "सुनिश्तिासंभवद् बाधक प्रमाण" हेतु है वहाँ "सुनिश्चितासंभवद्साधकत्व हेतु संभव नहीं है और यह सुनिश्चिासंभवत् साधक" हेतु सर्वज्ञ में सिद्ध भी नहीं है कि जिससे वह सुनिश्चितासंभवद्बाधक प्रमाणत्व हेतु का व्यावृत्तक-निवारण करने वाला हो सके । अर्थात् हमारे इस हेतु की व्यावृत्ति नहीं हो सकती है। इस प्रकार निर्दोषत्व हेतु से संसारी जीवों का प्रभु सर्वज्ञ ही है यह बात सिद्ध हो गई। भावार्थ-आचार्य कहते हैं कि "बाधा का न होना जिसमें सम्यक् प्रकार से निश्चित है" उसे 1 निर्णये त्वसत्तायां इति पा० । (ब्या० प्र०) 2 वस्तुनि । 3 विरोधात् । 4 यत्र साधकाभावस्तत्र बाधकसद्भावः । यत्र च बाधकाभावस्तत्र साधकसद्भावः । न त्वेकत्र साधकबाधकाभावो यथा तथा तदुभयनिर्णयोपिन। 5 सर्वत्र । 6 सुनिश्चितासंभवद्वाधकत्वं यत्र तत्र सुनिश्चतासंभवत्साधकत्वं न घटते, अन्योन्यविरोधात् । 7 सुनिश्चितासंभवसाधकप्रमाणत्वम्। 8 सर्वज्ञे। 9 निर्दोषत्वादेतोः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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