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________________ सर्वज्ञसिद्धि ] प्रथम परिच्छेद [ मीमांसक आत्मानं ज्ञानस्वभावं न मन्यते तस्योत्तरं ] न खलु स्वभावस्य कश्चिदगोचरोस्ति यन्न क्रमेत, ' 2 तत्स्वभावान्तरप्रतिषेधात् । कुतः 1 [ २७३ सुनिश्चितासंभवद् बाधक प्रमाण कहते हैं । यदि कोई कहे कि - निर्दोष कारणों से उत्पन्न होने से या प्रवृत्ति की सामर्थ्य से अथवा विसंवाद न होने से इन तीन हेतुओं से या तीनों में से किसी एक हेतु से सर्वज्ञ के सद्भाव को प्रमाणभूत सिद्ध कर सकते हो तो इस पर आचार्यों का कहना है कि हमारे यहाँ "बाधा का न होना जिसमें सुनिश्चित है" ऐसे निर्दोष प्रमाण से ही सर्वज्ञ का अस्तित्व सिद्ध करते हैं । अदुष्टकारण जन्यत्व, प्रवृत्ति सामर्थ्य और विसंवाद रहितत्व का हमारे यहाँ कोई भी महत्त्व नहीं है और शून्यवाद के खंडन में इनका खंडन भी कर दिया गया है । दूसरी बात यह भी है कि जहाँ हमारा हेतु विपक्ष से व्यावृत्ति रूप है यह बात निस्संदेह सिद्ध है इसमें संदेह भी नहीं है वहाँ अपने आप विसंवाद रहित आदि अवस्थायें आ जाती हैं क्योंकि जिसमें बाधा नहीं है उसमें संवादकत्व, निर्दोषकारणजन्यत्व तो स्वयं ही विद्यमान हैं। जैसे कि वर्तमान काल के लौकिक-सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष अथवा अनुमान आदि में बाधा का न होना सुनिश्चित होने से ही प्रमाणता मानी जाती है उसी प्रकार से हमारे यहाँ भी "सुनिश्चितासंभवद्बाधकत्व" हेतु भी प्रमाणीक ही है क्योंकि सर्वत्र या कहीं भी क्यों न हो, बाधा का न होना जब निश्चित हो जाता है तभी वहाँ उस विषय में विश्वास देखा जाता है किंतु जहाँ बाधा संभव है या बाधा के होने में संदेह है वहाँ पर विश्वास भी नहीं होता है । इस पर मीमांसक ने कहा है कि आप जैन तो सर्वज्ञ को सिद्ध करने वाला प्रमाण प्रस्तुत कर रहे हैं और हम सर्वज्ञ को बाधित करने वाला प्रमाण दे रहे हैं । अब दोनों में किसकी बात सत्य समझी जावे जबकि साधक-बाधक दोनों ही प्रमाण विद्यमान हैं अतः सर्वज्ञ के अस्तित्व को मानने में तो हमेशा ही संशय बना रहेगा । जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसी बात भी नहीं है क्योंकि एक सिद्धांतवादी हम अथवा आप दोनों को एक साथ मानते नहीं हैं। देखो ! हम तो साधक प्रमाण से अस्तित्व सिद्ध कर देते हैं और आप बाधक से नास्तित्व | इसलिए आपके यहाँ सर्वज्ञ का अभाव है किन्तु हमारे यहाँ सद्भाव है, पुनः संशय का होना कैसे रहा ? किसी को भी सर्वज्ञ के साधक प्रमाणों का निर्णय होगा तब वह सर्वज्ञ की सत्ता को मान लेगा और जब बाधक प्रमाण का निर्णय होगा तब वह सर्वज्ञ का अभाव कह देगा किन्तु किसी को भी संशय का प्रसंग नहीं रहेगा । हाँ ! जिस वस्तु को कोई एक सत्य कह रहा है और उसी वस्तु को यदि कोई दूसरा असत्य कह रहा है तब तीसरा कोई आवे तो उसे संशय हो सकता है कि इन दोनों में किसकी बात सत्य है और किसकी असत्य, किन्तु सत्य और असत्य को कहने 1 जानीत । ( ब्या० प्र० ) 2 तत्स्वभावान्तरम् = अज्ञत्वलक्षणम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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