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________________ सर्वज्ञसिद्धि ] प्रथम परिच्छेद [ २६६ हो । आपका कहना है कि कोई भी वस्तु सर्वथा नित्य या सर्वथा क्षणिक आदि रूप है ही नहीं जैसा कि बौद्ध सांख्यादि मानते हैं इस प्रकार से जब आप एकांतों का सर्वथा ही अभाव मानते हो पुनः उन एकांतों का खण्डन भी कैसे करते हो ? क्योंकि एकांतों को माने बिना आप उनका निषेध भी नहीं कर सकेंगे। आपके सिद्धांतानुसार तो जिस वस्तु की विधि है-अस्तित्व है उसी का ही निषेध हो सकता है । इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि हम स्याद्वादियों ने सर्वथा एकांतों के निषेध से ही अनेकांत की सिद्धि नहीं मानी है कि जिससे सर्वथा नास्ति रूप और निषेध करने योग्य एकांतों का निषेध न किया जा सके । अर्थात् ऐसी बात नहीं है जो वस्तु सर्वथा है ही नहीं, उसके निषेध करने या विधि करने का किसी प्रमाता के पास अवसर ही नहीं है। हमारे यहाँ सर्वज्ञ भगवान् के द्वारा कथित सभी वस्तुयें अनंत धर्मात्मक ही हैं यह बात अबाधित रूप से सिद्ध है । ऐसी अवस्था में प्रमाण, नयों की प्रक्रिया को जानने वाले विद्वान् जन सर्वथा एकांत को दूषित कर देते हैं इसमें कोई बाधा ही नहीं आती है। किसी ने कहा कि "मैं सदा सत्य बोलता हूँ और झूठ बोलने का मुझे त्याग है" तो इसमें क्या बाधा आई ? हमने कहा कि सभी वस्तु अनेकांत स्वरूप हैं क्योंकि एकांत मान्यता में अनेक दोष आते हैं तो इस बात में कुछ भी बाधा नहीं आती है। दूसरी बात यह भी है कि मिथ्यात्व कर्म के उदय से होने वाली सर्वथा एकांत रूप गलत धारणायें भी कथंचित् विद्यमान अवस्था को लिये हुये हैं वे सभी एकांत धारणायें अपने अपने स्वरूप से विद्यमान होने से सत् रूप ही हैं अतः उन मिथ्या धारणाओं का निषेध करना ही तो एकांत का निषेध है क्योंकि जैन सिद्धान्त में नैयायिकों के द्वारा मान्य तुच्छाभाव को तो स्वीकार नहीं किया गया है । अतएव एकांतों के न दीखने से सर्वथा एकांतों का अभाव है ऐसा हम नहीं मानते हैं प्रत्युत वस्तुभूत . अनंत धर्मात्मक अनेकांत का ज्ञान हो जाना एकांतों का अभाव है। हमारे यहाँ अनेक धर्मों का जो विधान है वही एकांतों का निषेध है । नैयायिक या मीमांसकों के समान अन्य प्रकार से अभाव का ज्ञान होना हम नहीं मानते हैं। देखिये ! जैसे सब वस्तुओं में अनेकांत की उपलब्धि होने से एकांतों का नहीं दीखना हमें सिद्ध है । पुनः यदि किसी को हम भ्रमवश एकांत की कल्पना भी हो जाती है तो वह खंडित कर दी जाती है उसी प्रकार से सभी पुरुषों में सर्वज्ञ के बतलाने वाले प्रमाणों का न दीखना आपको सिद्ध नहीं है जिससे कि वहाँ सभी में आप सर्वज्ञ का वस्तुतः निषेध कर सकें । अर्थात् यदि आप इस प्रकार से निषेध करेंगे तो पूर्ववत् सभी दोष पुनः आपके ऊपर लागू हो जावेंगे। इसी विषय पर श्लोकवातिकालंकार में स्वयं श्री विद्यानंद महोदय ने बहुत ही विस्तृत प्रकाश डाला है । जैसे कि "आसन् संति भविष्यंति बोद्धारो विश्वदृश्वनः । मदन्येऽपीति निर्णीतिर्यथा सर्वज्ञवादिनः ॥३२॥ किंचिज्ज्ञस्यापि तद्वन्मे तेनैवेति विनिश्चयः । इत्ययुक्तमशेषज्ञ-साधनोपाय-संभवात् ।।३३।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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