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________________ २६८ 1 अष्टसहस्री [ कारिका ३नन्वेवं सर्वथैकान्तः परोपगमतः कथम् । सिद्धो निषिध्यते जनैरिति चोद्यं न धीमताम् ॥१५॥ प्रतीतेऽनन्तधर्मात्मन्यर्थे स्वयमबाधिते । को दोषः 'सुनयैस्तत्रकान्तोपप्लवसाधने ॥१६॥ अनेकान्ते हि विज्ञानमेकान्तानुपलम्भनम् । तद्विधिस्तन्निषेधश्च मतो नैवान्यथा गतिः॥१७॥ नैवं सर्वत्र सर्वज्ञज्ञापकानुपदर्शनम् । सिद्धं तद्दर्शनारोपो येन तत्र निषिध्यते ॥१८॥ इति । यदि आप कहें कि इस प्रकार से “सर्वथैकांत" भी पर की स्वीकृति से ही तो सिद्ध है पुनः उसका निषेध भी आप जैनी क्यों करते हैं आपका ऐसा प्रश्न करना ठीक नहीं है। अर्थात् सांख्य, बौद्ध आदि के एकांत मंतव्य को आप जैन प्रमाण नहीं मानते हैं पुनः पर की स्वीकृति से ही तो उस एकांत का निषेध कैसे करेंगे ? ॥१५॥ इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि हमारे यहाँ अनंत धर्मात्मक, स्वयं अबाधित पदार्थ का अनुभव होने पर सुनयों के द्वारा एकांत का अभाव सिद्ध करने में क्या दोष है ? अर्थात जीव, पूदगल आदि सभी पदार्थ अनंतधर्मात्मक अपने आप प्रमाण से सिद्ध हैं पुनः श्रेष्ठ प्रमाण नय की प्रक्रिया एवं सप्तभंगी से उनको जान लेने से एकांत का अभाव स्वयं सिद्ध हो जाता है। जैसे तीव्र आतप से संतप्त पुरुष को छाया में भी स्फुलिंग दीखते हैं किंतु उनका निषेध कर दिया जाता है क्योंकि शुद्ध छाया का प्रत्यक्ष होना ही दृष्टि दोष से हुए अनेक असत् धर्मों का निषेध करना है। वास्तव में वहाँ निषेध कुछ नहीं केवल शुद्ध छाया का विधान है वैसे ही मिथ्या कल्पित एकांत का निषेध समझना ॥१६॥ अनेकांत में एकांत की उपलब्धि न होना रूप विज्ञान है वही अनेकांत की विधि और एकांत का निषेध है अन्य प्रकार से एकांत के अभाव का ज्ञान नहीं है। अर्थात् अनेक धर्मों का विधान ही एकांत का निषेध है हमारे यहाँ एकांत के अभाव को सर्वथा तुच्छाभाव रूप नहीं माना है प्रत्युत भावांतर रूप अनेकांत का होना ही माना है ॥१७॥ . इस प्रकार से सर्वत्र सर्वज्ञ के ज्ञापक प्रमाग का अभाव सिद्ध नहीं है जिससे कि उस सर्वज्ञ के दर्शन की भ्रांति का वहाँ निषेध किया जा सके । अर्थात् जैसे हम सभी लोगों को सभी वस्तुओं में अनेकांत की उपलब्धि रूप एकांतों का नहीं दीखना सिद्ध है। यदि किसी को भ्रम वश एकांत की कल्पना हो भी जाती है तो उसका खण्डन कर दिया जाता है। इसी प्रकार से सभी पुरुषों को सर्वज्ञ ज्ञापक प्रमाणों का नहीं दीखना सिद्ध नहीं है कि जिससे आप उनका निषेध कर सकें अर्थात् आप सर्वज्ञ ज्ञापक प्रमाण का निषेध नहीं कर सकते हैं ॥१८॥ विशेषार्थ-मीमांसक का कहना है कि जैसे अभाव प्रमाण से सर्वज्ञ का अभाव करने में आपने अंतिम दोष दिखाया है वैसे तो आप भी दोषी हैं, देखो ! आप जैन सभी वस्तु को अनेकांत रूप मानते 1 सुयुक्तिभिः। 2 एकांतोपप्लवबाधने इति पा० । अभाव । (ब्या० प्र०) 3 गृहीत्वा वस्तुसद्भावमित्यादिप्रक्रिया जैनेष नास्ति ततश्चास्माकं न किञ्दूिषणमित्याहानेकान्ते इति । 4 एव । (ब्या० प्र०) 5 गृहीत्वा वस्तुसद्भावमित्यादिप्रकारेण। 6 अनेकान्ते हीत्यादिप्रकारेणैव अनुपलम्भनं स्यादित्यूक्ते सिद्धान्त्याह नैवमिति । 7 सर्वज्ञदर्शनसद्भाव । (ब्या० प्र०) 8 भ्रान्तिः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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