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सर्वज्ञसिद्धि ] प्रथम परिच्छेद
[ २६७ वहाँ मंदिर खाली दिखा तब पूर्व में देखे हुये सर्वज्ञ का स्मरण हुआ और मन में ज्ञान हुआ कि “यहाँ सर्वज्ञ नहीं है" इसे अभाव प्रमाण कहते हैं । आप मीमांसक की अभाव प्रमाण की इस व्याख्या से तो बड़ी आफत आ जाती है क्योंकि पूर्व में देखे गये, जाने गये का ही वर्तमान में स्मरण हो सकता है बिना जाने पदार्थ का स्मरण ही असंभव है।
दूसरी तरह से यह भी प्रश्न होता है कि "सभी जीवों के पास सर्वज्ञ को बतलाने वाले प्रमाणों का अभाव है" इस बात को जानने के लिये आप सभी जीवों को एक साथ ही एक समय में जान लेते हो या क्रम से एक-एक को जानते हो? क्रम-क्रम से अन्य सभी जीवात्माओं को जान लेना आपको इष्ट नहीं है क्योंकि क्रम-क्रम से जानने में तो अनंत काल निकल जावेगा कारण जीवराशि तो अनंतानंत है।
___ यदि आप कहें कि इन्द्रिय प्रत्यक्ष से हम क्रम-क्रम से सभी जीवों को नहीं जानेंगे कि इनके पास सर्वज्ञ ज्ञापक कोई प्रमाण नहीं है किंतु अनुमान आदि से जल्दी से जान लेंगे तो आचार्य कहते हैं कि संपूर्ण जीवों के पास सर्वज्ञ ज्ञापक प्रमाण नहीं है इस बात को बताने के लिये अनुमान, आगम, उपमान आदि प्रवृत्त नहीं हो सकेंगे क्योंकि अविनाभावी हेतु सादृश्य आदि का अभावपूर्ववत् ही है।
यदि दूसरा पक्ष लेवो कि एक साथ ही हम सभी जीवों को जान लेंगे कि "इन सभी के पास सर्वज्ञ का ज्ञापक कोई प्रमाण नहीं है" तब तो आप ही सभी को युगपत् जान लेने से सर्वज्ञ हो जावेंगे। निष्कर्ष यह है कि मीमांसक अभाव प्रमाण से सर्वज्ञ का अभाव करना चाहता था किन्तु जैनाचार्य ने इस अभाव प्रमाण का ही अभाव करके सर्वज्ञ के सद्भाव को सिद्ध कर दिया है । मीमांसक ने पुनः एक बात कही है कि आप जैनादि सर्वज्ञ को बताने वाले प्रमाणों को मानते हैं थोड़ी देर के लिए हम उनको लेकर कल्पना से मान लेंगे पुनः अभाव प्रमाण से ज्ञापक प्रमाणों की उपलब्धि का अभावो सद्ध कर देंगे।
इस पर जैन कहते हैं कि हम लोगों ने जो सर्वज्ञ के ज्ञापक प्रमाणों को माना है उन्हें लेकर पुनः तुम उनका अभाव करना चाहते हो तो पहले यह बताओ कि आप हमारे द्वारा मान्य सर्वज्ञ ज्ञापक प्रमाणों को सच्चे मानते हो या नहीं ? यदि सच्चे मानते हो तो आप उन प्रमाणों का अभाव नहीं कर सकोगे। अर्थात् सर्वज्ञवादी के मत को प्रमाण मानने पर आप ज्ञापकोपलंभ का अभाव नहीं कर सकते हैं यदि ज्ञापकोपलंभन का अभाव सिद्ध करते हो तो सर्वज्ञवादी के ज्ञापक प्रमाणों को आप प्रमाणीक नहीं मानते हो और यदि आप सर्वज्ञवादी के मन्तव्य को प्रमाण नहीं मानते हो तब तो संपूर्ण आत्माओं का ज्ञान और ज्ञापकोपलंभन रूप सामग्री के न होने से आपके उस अभाव प्रमाण की उत्पत्ति नहीं हो सकेगी। "सेयमुभयतः पाशारज्जुः" रस्सी में दोनों तरफ फांसे हैं इस न्याय से आप मीमांसक को दोनों ही तरफ से सर्वज्ञ मानना पड़ता है । सर्वज्ञ का अभाव यदि अभाव प्रमाण से करते हैं तो भी मानना पड़ता है और यदि सर्वज्ञ का अभाव न करें तब तो वह स्वयं सिद्ध ही है।
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