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________________ २६६ ] अष्टसहस्री [ कारिका ३ का दोष आ जाता है ।।१४।। विशेषार्थ-मीमांसक का कहना है कि प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमान और अर्थापत्ति रूप पाँचों ही प्रमाणों से सर्वज्ञ का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता है, अतएव अन्तिम छठे अभाव प्रमाण के द्वारा सर्वज्ञ का अभाव ही सिद्ध है इस अभाव प्रमाण का दूसरा नाम है "ज्ञापकानुपलंभन" मतलब बतलाने वाले प्रमाण का उपलब्ध न होना। मीमांसक के इस कथन पर जैनाचार्य प्रश्न करते हैं कि सर्वज्ञ के अस्तित्व को बतलाने वाला प्रमाण केवल आपको ही नहीं है या सभी जीवों के पास सर्वज्ञ को बतलाने वाला प्रमाण नहीं है ? यदि प्रथम पक्ष लेवो तब तो समुद्र के पूरे पानी में घड़ों की संख्या का परिमाण तो है किंतु आप के पास उनका ज्ञापक प्रमाण नहीं है अतः आपका हेतु व्यभिचारी हो गया। यदि आप दूसरा पक्ष लेवें कि सभी संसार के जीवों के पास सर्वज्ञ को बताने वाला कोई प्रमाण नहीं है तब तो हम और आप जैसे अल्पज्ञ जनों द्वारा यह बात जानना ही शक्य नहीं है कि सभी जीवों के पास सर्वज्ञ को बताने वाला कोई प्रमाण नहीं है और यदि आप किसी जीव को भी ऐसा सभी को जानने वा इन सभी के पास सर्वज्ञ ज्ञापक प्रमाण नहीं है तब तो सब को जानने वाले सर्वज्ञ का आप निषेध भी कैसे कर सकते हो? __ यदि आप मीमांसक यह कहें कि “षड्भिः प्रमाणः सर्वज्ञो न वार्यत इति चायुक्तं" प्रत्यक्षादि छहों प्रमाणों से सम्पूर्ण पदार्थों को जानने वाले सर्वज्ञ का हम निषेध नहीं करते हैं। अनुमान या अपौरुषेय वेद रूप आगम से अनेक विद्वान्, परोक्ष रूप से सम्पूर्ण पदार्थों को जान लेते हैं यह कोई कठिन बात नहीं है किन्तु “एक अतींद्रिय प्रत्यक्ष के द्वारा युगपत् सम्पूर्ण जगत् को जानने वाला कोई सर्वज्ञ है" इस बात का ही हम निषेध करते हैं। मतलब पुण्य, पाप आदि अतींद्रिय पदार्थों का ज्ञान वेद से ही होता है न कि प्रत्यक्ष ज्ञान से। इस कथन पर भी जैनाचार्य कहते हैं कि "अतींद्रिय प्रत्यक्ष ज्ञान से कोई भी मनुष्य अतींद्रिय पदार्थों को नहीं जानता है" यह बात भी आप इंद्रिय प्रत्यक्ष के द्वारा नहीं जान सकते हैं यदि जानेंगे तब तो आप ही सर्वज्ञ बन जावेंगे। इसी प्रकार से सर्वज्ञ के अभाव को कहने वाला यह अभाव प्रमाण अनुमान के द्वारा भी नहीं जाना जा सकता है तथैव उपमान और अर्थापत्ति से भी यह ज्ञापकानुपलंभन हेतु जाना नहीं जा सकता है एवं आप मीमांसक ने कर्मकांड के प्रतिपादक वेदवाक्यों को ही प्रमाण माना है, किंतु सर्वज्ञाभाव के साधने में समर्थ अभाव प्रमाण को सिद्ध करने वाले वेदवाक्यों को प्रमाण नहीं माना है अतः आगम से भी ज्ञापकानुपलंभ हेतु सिद्ध नहीं हो सकता है यदि आप सर्वज्ञ को बतलाने वाले प्रमाणों के अभाव को अभाव प्रमाण से कहो तो भी ठीक नहीं है क्योंकि आपके द्वारा मान्य अभाव प्रमाण की भी सभी जगह प्रवृत्ति नहीं हो सकती है। अर्थात् सर्वज्ञाभाव के आधारभूत शुद्ध भूतल के सद्भाव को जान करके और जिसका अभाव सिद्ध किया गया है उस सर्वज्ञ का स्मरण करके बहिरंग इन्द्रियों की अपेक्षा से रहित जो मन में "यहाँ सर्वज्ञ नहीं है" यह ज्ञान होता है वह अभाव प्रमाण है जैसे पहले कभी किसी मंदिर में सर्वज्ञ को देखा था पुनः कुछ दिन बाद गये तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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