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सर्वज्ञसिद्धि ] प्रथम परिच्छेद
[ २६५ यदा च क्वचिदेकत्रा भवेत्तन्नास्तितागतिः । नैवान्यत्र तदा सास्ति क्वैवं सर्वत्र नास्तिता ॥११॥ .'प्रमाणन्तरतोप्येषां' न सर्वपुरुषग्रहः। तल्लिङ्गादेरसिद्धत्वात् 'सहोदीरितदूषणात्1 ॥१२॥ 11तज्ज्ञापकोपलम्भोपि सिद्धः पूर्व न जातुचित्। 1यस्य स्मृतौ प्रजायेत नास्तिताज्ञानमाञ्जसम्13 ॥१३॥ 14परोपगमतः सिद्धःस1 चेन्नास्तीति साध्यते ।16व्याघातस्तत्प्रमाणत्वेन्योन्यं सिद्धो न सोऽन्यथा ॥१४॥
और जब किसी एक मनुष्य में भी “सर्वज्ञ नहीं है" ऐसा 'नास्तिता का ज्ञान हो जायेगा तब अन्य मनुष्य में वह नास्तिता का ज्ञान तो है नहीं पुनः सर्वत्र सर्वज्ञ नहीं है ऐसा "नास्तिता का ज्ञान" कैसे हो सकता है ? अर्थात् आप जब क्रम-क्रम से सबको जानेंगे तभी तो सर्वज्ञ का अभाव सिद्ध करेंगे और क्रम-क्रम से से सभी मनुष्यों को जानना तो तीन काल में भी शक्य नहीं है ।।११।।
आप मीमांसकों के यहाँ सर्वज्ञ के ज्ञापक-बतलाने वाले प्रमाण के अभाव के आधारभूत संपूर्ण पुरुषों का ग्रहण अन्य अनुमान, अर्थापत्ति आदि प्रमाणों से भी नहीं हो सकता है क्योंकि उनके अविनाभाव, सादृश्य आदि गुणों को रखने वाले हेतु आदिक सिद्ध नहीं हैं। अनेक पुरुषों को क्रम से जानने में जो दूषण आते हैं वे ही दोष उन पुरुषों को जानने में जो हेतु या सादृश्य दिये जावेंगे उनमें भी साथ साथ ही आवेंगे अर्थात् अनेक पुरुषों के साथ व्याप्ति को रखने वाला कोई निर्दोष हेतु आपके पास नहीं है और न सादृश्य आदि ही हैं ॥१२॥
उस सर्वज्ञ को बताने वाले की उपलब्धि भी पूर्व में कदाचित् सिद्ध नहीं है । जिस ज्ञापकोपलंभ की स्मृति होने पर वास्तव में नास्तिता का ज्ञान हो सके। अर्थात् आपके यहाँ अभाव प्रमाण की उत्पत्ति में प्रतियोगी का स्मरण भी कारण है और पूर्व में जाने हुये सर्वज्ञ के ज्ञापक प्रमाण का स्मरण हो सकता है परन्तु आपको तो सर्वज्ञ ज्ञापक प्रमाण का स्मरण नहीं है ॥१३॥
यदि हम जैनादि की स्वीकृति से वह सर्वज्ञ ज्ञापक प्रमाण–सर्वज्ञ को बतलाने वाला प्रमाण सिद्ध है पुनः “नास्ति" इस प्रकार से सिद्ध किया जाता है, तब तो व्याघात-परस्पर विरुद्ध दोष हो जाता है। यदि आप पर की स्वीकृति को प्रमाण मानते हो तो वादी और प्रतिवादी दोनों को ही वह सिद्ध है यदि कहो वह अप्रमाण है तो दोनों के यहाँ सिद्ध नहीं है। अर्थात् आप यदि हम सर्वज्ञवादी
प्रमाण मानते हैं तब तो सर्वज्ञ को सिद्ध करने वाले प्रमाणों का अभाव नहीं कर सकेंगे और यदि सर्वज्ञ के अभाव को सिद्ध करते हो तो हमारी स्वीकृति तुम्हें प्रमाण नहीं रही, मतलब तुम हमारी अप्रमाणिक स्वीकृति से हमारा खंडन कैसे करोगे इसमें तो तुम्हारे यहाँ "वदतोव्याघात" नाम 1 नरे। 2 सर्वज्ञनास्तितानिश्चितिः। 3 नरे। 4 नास्तितागतिः। 5 नरे । (ब्या० प्र०) 6 अनुमानादिना । 7 मीमांसकानाम् । 8 अनुमाने लिङ्गस्य, उपमाने सादृश्यस्य, अर्थापत्ती त्वन्यथाभावस्य चाभावादित्यर्थः। 9 युगपत् । (ब्या० प्र०) 10 सर्वसम्बन्धि तद्बोद्धं किञ्चिद्वोधैर्न शक्यते इत्यादिना पूर्वमेव नास्तितासिद्धी प्रयुक्ते तत्र तत्र प्रत्येकप्रमाणे दूषणस्योक्तत्वात् । 11 मीमांसकानामसिद्ध एव । (ब्या० प्र०) 12 तज्ज्ञापकोपलम्भस्य स्मृती सत्याम् । 13 पारमार्थिकं । (ब्या० प्र०) 14 जैनाद्युपगमतः। 15 सर्वज्ञः । 16 कथं व्याघातस्तथाहि ।-तस्य परोपगमस्य प्रमाणत्वेन्योन्यं परस्परं (वादिप्रतिवादिनोः) स सिद्धः । अन्यथा (तदप्रमाणत्वे) अन्योन्यं परस्परमुभयोरेव न सिद्ध इति । 17 विधिप्रतिषेधयोः । (ब्या० प्र०)
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