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________________ २६४ ] अष्टसहस्री [ कारिका ३ ' तज्ज्ञापकोपलम्भस्याभावोऽभावप्रमाणतः । साध्यते चेन्न तस्यापि सर्वत्राप्यप्रवृत्तितः ॥७॥ गृहीत्वा वस्तुसद्भावं स्मृत्वा तत्प्रतियोगिनम् ' । मानसं नास्तिताज्ञानं येषामज्ञानपेक्षया ॥८॥ तेषामशेषनृज्ञाने' स्मृते? तज्ज्ञापके क्षणे । जायेत नास्तिताज्ञानं मानसं तत्र नान्यथा ॥ ६ ॥ न चाशेषनरज्ञानं ' सकृत्साक्षादुपेयते । न क्रमादन्य 11 सन्तान प्रत्यक्षत्वानभीष्टितः ॥ १० ॥ 0 सर्वज्ञ को बतलाने वाले प्रमाण की उपलब्धि का अभाव प्रमाण से यदि आप अभाव सिद्ध करते हैं तो यह ठीक नहीं है क्योंकि वह अभाव प्रमाण भी सर्वत्र प्रवृत्ति नहीं कर सकता है । अर्थात् सभी पुरुषसंबंधि सर्वज्ञ के अभाव को जानने में वह अभाव प्रमाण समर्थ नहीं हो सकता है ||७|| आप मीमांसकों के यहाँ ही अभाव प्रमाण का ऐसा लक्षण किया है कि वस्तु के सद्भाव को ग्रहण करके और जिसका अभाव सिद्ध किया है उसके प्रतियोगी का स्मरण करके एवं बहिरंग इन्द्रियों की अपेक्षा न करके केवल मन में 'नहीं है' यह ज्ञान होता है वह अभाव प्रमाण है । अर्थात् जैसे भूतल में घट का अभाव जाना जाता है । इस समय भूतल का चक्षु से या स्पर्शन इन्द्रिय से प्रत्यक्ष है ही और पहले देखे हुये घट का स्मरण है ऐसी दशा में मन इन्द्रिय से घटाभाव का ज्ञान हुआ || ८ || पुनः उन मनुष्यों को अशेष मनुष्यों का ज्ञान हो जाने पर तथा सर्वज्ञ ज्ञापक के काल का स्मरण हो जानें पर मन में 'सर्वज्ञ नहीं है' यह ज्ञान उत्पन्न हो सकता है अन्यथा नहीं हो सकता है । अर्थात् हम जैनों के यहाँ और नैयायिकों के यहाँ तो अभाव का ज्ञान प्रत्यक्ष अनुमान आदि प्रमाणों से हो जाता है किंतु मीमांसक लोग अभाव के जानने में निषेध करने योग्य पदार्थ का स्मरण और निषेध की आधारभूत वस्तु का प्रत्यक्ष करना या दूसरे प्रमाणों से निर्णीत कर लेना आवश्यक मानते हैं। अतः उन मोमांसकों को सर्वज्ञ ज्ञापक प्रमाणों का अभाव रूप नास्तित्व मन और इन्द्रियों के द्वारा तभी ज्ञात हो सकेगा जब कि वहाँ के आधारभूत संपूर्ण मनुष्यों का ज्ञान किया जावे और उस समय सर्वज्ञ ज्ञापक प्रमाणों का स्मरण किया जावे इसके सिवा अन्य प्रकार से सर्वज्ञ ज्ञापक प्रमाणों की नास्तिता का ज्ञान किसी भी प्रकार से नहीं कर सकेंगे ॥ ६ ॥ और किसी को भी एक साथ सभी मनुष्यों का ज्ञान हो नहीं सकता है तथा क्रम से भी नहीं हो सकता है क्योंकि अन्य पुरुष के मनोव्यापारादि का प्रत्यक्ष होना किसी को इष्ट नहीं है एवं शक्य भी नहीं है । अर्थात् अभाव प्रमाण की उत्पत्ति में आधारभूत सभी मनुष्यों का ज्ञान होना आवाश्यक है। ऐसी आपकी मान्यता है किंतु यह बात शक्य नहीं है ॥१०॥ 1 प्रभाकरं निराकृत्य भट्टं निराकुर्वन्नाह तज्ज्ञापकेति । 2 सर्वपुरुषसम्बन्धिनि ज्ञापकानुपलम्भने । 3 सर्वजन सर्वज्ञग्राहकप्रमाणाभावे । ता बहु: । (ब्या० प्र०) 4 घटव्यतिरिक्तं भूतलं । ( व्या० प्र० ) 5 घटं । (ब्या० प्र० ) 6 लक्ष्ये योजयति । ( ब्या० प्र० ) 7 सति । 8 सर्वज्ञज्ञापके काले । 9 युगपत् । (ब्या० प्र० ) 10 घटते । 11 अन्यपुरुषमनोव्यापारादिप्रत्यक्षत्वानिष्टेः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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