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सर्वज्ञसिद्धि ] प्रथम परिच्छेद
[ २६३ सर्वसम्बन्धि सर्वज्ञज्ञापकानुपलम्भनम् । न चक्षुरादिभिर्वेद्यमत्यक्षत्वाददृष्टवत् ॥३॥ नानुमानादलिङ्गत्वात् 'क्वार्थापत्त्युपमागतिः । *सर्वज्ञस्यान्यथाभावसादृश्यानुपपत्तितः॥४॥ सर्वप्रमातृसम्बन्धिप्रत्यक्षादिनिवारणात् । केवलागमगम्यं च कथं मीमांसकस्य तत् ॥५॥ कार्यर्थ चोदनाज्ञानं प्रमाणं यस्य सम्मतम् । तस्य स्वरूपसत्तायां तन्न वातिप्रसङ्गत:10 ॥६॥
जानने वाला प्रमाण नहीं है और यदि जानेगा तब तो सर्वप्राणियों को जानने से वही तो सर्वज्ञ सिद्ध हो जावेगा पुनः आप सर्वज्ञ का निषेध भी कैसे कर सकेंगे ? ॥२॥
दूसरी बात यह है कि सर्व सम्बन्धि सर्वज्ञ के ज्ञापकानुपलभ-अभाव प्रमाण को चक्षु आदि इन्द्रियों के द्वारा जानना शक्य नहीं है क्योंकि वह अतींद्रिय अदृष्ट के समान है । अर्थात् जैसे पुण्य-पाप आदि इन्द्रिय से नहीं दिखते हैं वैसे ही वह ज्ञापकानुपलंभ नहीं दिखता है ।।३॥
अनुमान से भी सर्वज्ञ के अभाव का ज्ञान नहीं है क्योंकि सर्वज्ञ अत्यंत परोक्ष है अतः उसके ज्ञापक हेतु का अभाव है एवं उस सर्वज्ञ के अभाव के साथ अन्यथाभाव और सादृश्य का अभाव होने से अर्थापत्ति और उपमान प्रमाण से भी सर्वज्ञ के अभाव का ज्ञान नहीं हो सकता है ॥४॥
सर्वज्ञ के अभाव को सिद्ध करने वाले उस "ज्ञापकानुपलंभन" हेतु के जानने में सम्पूर्ण प्रमाताज्ञाता सम्बन्धी प्रत्यक्ष, अनुमान, अर्थापत्ति और उपमान प्रमाणों का निवारण हो जाने से तो मीमांसकों के यहाँ केवल आगम से उस सर्वज्ञ के अभाव का जानना कैसे सिद्ध हो सकेगा ? ॥५॥
क्योंकि जो मीमांसक वेदवाक्यों के अर्थ को कार्य-कर्मकांड के प्रतिपादक अर्थ में प्रमाण मानते हैं वे ही उन वेदवाक्यों को स्वरूप की सत्तारूप-परमब्रह्म को कहने वाले अर्थ में प्रमाण नहीं मानते हैं और यदि मानेंगे तो अतिप्रसंग दोष आ जावेगा अर्थात् "अन्नाद्वै पुरुषः" अन्न से पुरुष पैदा होता है ऐसे वेदवाक्यों को भी प्रमाण मानना पड़ेगा। तथा च चार्वाक मत का प्रसंग आ जावेगा अतः कर्मकांड के प्रतिपादक वावयों को ही मीमांसक प्रमाण मानते हैं किन्तु ज्ञापकानुपलंभन के सिद्ध करने वाले वेदवाक्यों को वे प्रमाण नहीं मानते हैं अतः आगम से भी ज्ञापकानुपलंभन की सिद्धि नहीं हुई कि जिससे सर्वज्ञ के अभाव को सिद्ध किया जा सके ॥६॥
1 अतींद्रियत्वात् । (ब्या० प्र०) 2 अत्यन्तपरोक्षत्वेन सर्वज्ञस्य ज्ञापकलिङ्गाभावः। 3 भा द्विः। (ब्या० प्र०) 4 सर्वस्यानन्यथाभावसादृश्यानुपपत्तित इति वा पाठः। 5 सर्वज्ञज्ञापकानुपलम्भनम् । 6 मीमांसकस्य । 7 स्वरूपशब्देन सर्वज्ञः। 8 सर्वज्ञज्ञापकानपलम्भनम। 9 अन्यथा-स सर्वबित स लोकवित हिरण्यगर्भः स्वरूप प्रामाण्यं स्यात् । (ब्या०प्र०) 10 आपः पवित्रमित्यादेरपि प्रामाण्यप्रसङ्गात् ।
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