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________________ सर्वज्ञ का ज्ञान असाधारण है । प्रथम परिच्छेद [ २४६ ततो न ज्ञ एव, भाव्यतीतासम्बद्धार्थज्ञानाभावादज्ञत्वस्यापि भावात्' इति न मन्तव्यं, लब्ध्युपयोगसंस्काराणामत्यये इति वचनात् । लब्ध्युपयोगौ हीन्द्रियं, "लब्ध्युपयोगौ भावेन्द्रियम्' इति वचनात् । तयोः संस्काराः 'स्वार्थधारणाः । तेषामत्यये सति ज्ञ एव स्यात् । [ सर्वज्ञस्य भावेन्द्रियवत् द्रव्येन्द्रियाणां विनाशो कथं न भवति ? ] 'कुतः पुनर्भावेन्द्रियसंस्काराणामत्यये सति ज्ञ एव स्यान्न तु "द्रव्येन्द्रियाणामत्यये, अतीन्द्रियप्रत्यक्षतोऽशेषार्थसाक्षात्कारित्वोपगमात्' इत्यपि न शङ्कनीयं 'भावेन्द्रियाणामावरणनिबन्धनत्वात् । कात्य॑तो ज्ञानावरणसंक्षये हि भगवानतीन्द्रियप्रत्यक्षभाक् सिद्धः । न च सकलावरणसंक्षये भावेन्द्रियाणामावरणनिबन्धनानां संभव:-1°कारणाभावे कार्यानुअभाव होने से अल्पज्ञ ही सिद्ध होते हैं। जैन ऐसा नहीं मानना चाहिये क्योंकि "लब्धि और उपयोग के संस्कारों का नाश हो जाने पर" ऐसा हमने वचन दिया है। एवं लब्धि और उपयोग को इन्द्रिय कहते हैं "लब्ध्युपयोगौ भावेन्द्रियम्" ऐसा सूत्र है। उन दोनों का संस्कार स्वार्थ धारणा रूप है। अर्थात् लब्धि और उपयोग का प्रकर्ष संस्कार अपने ग्राह्य-ग्रहण करने योग्य का ग्राहक परिमित रूप ही होता है। उन लब्धि और उपयोग के संस्कार-क्षयोपशम ज्ञान का नाश हो जाने पर सर्वज्ञ होता है। [ सर्वज्ञ भगवान् के भावेन्द्रियों के समान द्रव्येन्द्रियों का विनाश क्यों नहीं हो जाता है ? ] शंका-भावेन्द्रिय संस्कार के नाश होने पर ही सर्वज्ञ होता है किन्तु द्रव्येन्द्रियों के नाश से नहीं—यह बात कैसे सिद्ध होगी? क्योंकि आपने तो अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष से अशेष पदार्थ का साक्षात्कार होना स्वीकार किया है। समाधान-ऐसी शंका भी नहीं करना चाहिये क्योंकि भावेन्द्रियाँ तो आवरण के निमित्त से होती हैं किन्तु द्रव्येन्द्रियाँ आवरण निमित्तक नहीं हैं क्योंकि वे अंगोपांग नाम कर्म के निमित्त से होती हैं। अत: संपूर्णतया ज्ञानावरण का क्षय हो जाने पर ही भगवान् अतींद्रियप्रत्यक्षज्ञानी सिद्ध हैं। अर्थात् सर्वज्ञ में अष्ट कर्म का नाश कारण नहीं है ज्ञानावरण, दर्शनावरण का अभाव ही कारण है। इसलिये संपूर्ण आवरण का नाश हो जाने पर आवरण निमित्तक भावेन्द्रियाँ संभव नहीं हैं क्योंकि कारण के 1 स्याद्वाद्याह। 2 ज्ञानावरणसंक्षये भगवानतींद्रियप्रत्यक्षभाग्भवेत् एतावता भावेंद्रियाणामभावः कथमित्याशंकायामाह । (ब्या० प्र०) 3 तत्त्वार्थाधिगमवचनात् । 4 लब्ध्युपयोगयोः प्रकर्षाः (संस्काराः) स्वग्राह्यार्थग्राहकाः परिमितरूपा भवन्ति । 5 धारणाज्ञानरूपा न तु स्वरूपार्थग्रहणोन्मुखता संस्कारे, उपयोगसंस्कारयोरेकत्वप्रसङ्गात् । 6 द्रव्येद्रियाणामप्यपायः कुतो न शक्यते स्याद्वादिभिः सर्वज्ञस्यातींद्रियप्रत्यक्षतोपगमादिति पराशंका । (ब्या० प्र०) 7 न तू द्रव्येन्द्रियाणामावरणनिबन्धनत्वं तेषामङ्गोपाङ्गनामकर्मनिबन्धनत्वात् । 8 एवार्थे । न तु तत्राष्टकर्मविनाशः कारणम् आवरणापायस्यैव कारणत्वोपगमात् । 9 ज्ञानावरणसंक्षये भगवानतीन्द्रियप्रत्यक्षभाग्भवत्येतावता भावेन्द्रियाणामभावादेवेति कथमित्याशङ्कायामाह। 10 कारणानामावरणाभावरूपाणाम् । 11 कार्यस्य =भावेन्द्रियरूपस्य । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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