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२५० ] अष्टसहस्री
[ कारिका ३पपत्तेः । ननु चावरणक्षयोपशमनिबन्धनत्वाद्भावेन्द्रियाणां कथमावरणनिबन्धनत्वमिति
अभाव में कार्य हो नहीं सकता है ।
भावार्थ- इन्द्रियों के २ भेद हैं-द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय । तत्त्वार्थसूत्र महाशास्त्र में "निर्वृत्त्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम्" और "लब्ध्युपयोगौ भावेन्द्रियम्' के अनुसार दोनों ही इन्द्रियों का लक्षण किया गया है। निवृत्ति और उपकरण को द्रव्येन्द्रिय कहते हैं। निर्वृत्ति-नाम कर्म के उदय से होने वाली रचना विशेष को निर्वृत्ति कहते हैं। निर्वृत्ति के २ भेद है-आभ्यंतरनिर्वृत्ति और बाह्यनिर्वृत्ति । आत्मा के प्रदेशों का इन्द्रियाकार होना आभ्यंतर निर्वृत्ति कहलाती है। पुद्गल के परमाणुओं का इन्द्रियाकार होना बाह्य निर्वृत्ति कहलाती है। उपकरण-निर्वृत्ति के सहायक-उपकारक को उपकरण कहते हैं । उपकरण के दो भेद हैं आभ्यंतर और बाह्य । जैसे–नेत्रों में जो काला और सफेद मंडल है वह आभ्यंतर उपकरण है और पलकें तथा रोम वगैरह बाह्य उपकरण हैं। इसी प्रकार से शेष इन्द्रियों में भी जानना चाहिये । लब्धि और उपयोग को भावेन्द्रिय कहते हैं। लब्धि-ज्ञानावरण के क्षयोपशम विशेष को लब्धि कहते हैं। उपयोग-लब्धि के निमित्त से आत्मा का जो परिणमन होता है उसे उपयोग कहते हैं। अर्थात् ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से आत्मा में जो जानने की शक्ति प्रकट होती है वह तो लब्धि है और उसके होने पर आत्मा का ज्ञेयपदार्थ की ओर अभिमुख होना उपयोग कहलाता है । लब्धि और उपयोग के मिलने से ही पदार्थ का ज्ञान होता है।
इसलिये इन द्रव्येन्द्रियों की रचना नाम कर्म के भेद में अंगोपांग नामक नाम कर्म के उदय से होती है और मतिज्ञानावरण कर्म के स्पर्शनेंद्रियावरण आदि कर्मों के क्षयोपशम विशेष से भावेन्द्रियाँ होती हैं। केवली भगवान् के ज्ञानावरण कर्म का पूर्णतया नाश हो जाने से भावेन्द्रियाँ और भावमन नहीं पाये जाते हैं किंतु परमौदारिक दिव्य शरीर का अस्तित्व आयु नाम कर्म आदि अघातिया कर्म के शेष रहने तक चौदहवें गुणस्थान के अंत तक पाया जाता है अतः अहंत के द्रव्येद्रियां मौजूद हैं। सिद्धों में शरीर और अंगोपांग आदि नाम कर्म के अभाव से यद्यपि शरीर नहीं है फिर भी अंतिम शरीर से किंचित् न्यून सिद्धों के आत्म प्रदेशों का आकार-पुरुषाकार तो रहता ही है अतः वहाँ पर भी द्रव्येन्द्रियों का आकार विद्यमान है।
शंका-भावेन्द्रियाँ तो आवरण के क्षयोपशम के निमित्त से होती हैं पुनः उन्हें आवरण निमित्तक ही कैसे कह दिया ?
__ जैन-यदि ऐसा कहो तो देशघाति ज्ञानावरण कर्म के स्पर्धकों का उदय होने पर एवं सर्वघाति ज्ञानावरण के स्पर्धकों का उदयाभावी क्षय होने पर तथा उन्हीं सर्वघाति स्पर्धकों का सदवस्था रूप उपशम होने से वे भावेन्द्रियां होती हैं अतः उनके आवरण निमित्तकत्त्व सिद्ध ही है इसलिये यहाँ ऐसा प्रश्न करना ठीक नहीं है । अर्थात् ज्ञानावरण के स्पर्धकों में कुछ का उदय, कुछ का उदयाभावी 1 आह कश्चित्स्वमतवर्ती ।
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