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________________ अष्टसहस्री २४८ ] [ कारिका ३यस्येति विग्रहात् । चिदेव' ज्ञ एव' न पुनः कथञ्चिदप्यज्ञः, चिदिति शब्दस्य मुख्यवृत्त्याश्रयणात् कथञ्चिदचित्यपि' चिच्छब्दस्य प्रवृत्तौ गौणत्वप्रसङ्गात् । [ सर्वज्ञः इंद्रियज्ञानेन सर्व जानात्यतींद्रियज्ञानेन वा ? ] ननु च 'परमात्मा साक्षाद्वस्तु' जाननिन्द्रियसंस्कारानुरोधत एव जानीयान्नान्यथा 'तवेदनस्य 10प्रत्यक्षत्वविरोधात् । न चेन्द्रियसंस्काराः सकृत्सर्वार्थेषु ज्ञानमुपजनयितुमलं, सम्बद्धवर्तमानार्थविषयत्वात् “सम्बद्धं वर्तमानं च गृह्यते चक्षुरादिभिः' इति वचनात् । आत्यंतिकी मा-लक्ष्मीर्यस्येति"। क: अर्थात् परमात्मा, पर अर्थात् आत्यंतिकी, मा–लक्ष्मी है जिनको; उन्हें परमात्मा कहते हैं ऐसा विग्रह होता है । “चेतयते इति चित्-चित् ही ज्ञ ही सर्वज्ञ है, किन्तु कथंचित् भी अज्ञ सर्वज्ञ नहीं है । चित् यह शब्द मुख्य वृत्ति का आश्रय लेता है कथंचित् अचित्-अचेतन स्वरूप अहंत, सिद्ध, साधु आदि के प्रतिबिंबादि में भी चित् शब्द की प्रवृत्ति होने पर गौण का प्रसंग आ जाता है । अर्थात् अचेतन स्वरूप जो जिन प्रतिमा आदि हैं उन्हें गौण रूप से यहाँ भगवान् परमात्मा कहा गया है। भावार्थ-मीमांसक का कहना है कि सब तीर्थ का विनाश करने वाले हैं, सभी के आगम और आम्नाय परस्पर में विरोधी हैं अतः कोई भी सर्वज्ञ परमात्मा हो ही नहीं सकता है । इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसी बात नहीं है । कारिका के चतुर्थ पाद “कश्चिदेव भवेद्गुरुः" के अनुसार कोई न कोई चित् चैतन्य स्वरूप भगवान् परमात्मा हैं जो कि सभी संसारी प्राणियों के स्वामी हैं । 'चित्' शब्द से चैतन्य स्वरूप आत्मा एवं अहंत, सिद्ध, साधु आदिकों की प्रतिमायें भी ग्रहण की जाती हैं, किन्तु यहाँ कारिका के अर्थ में मुख्य रूप से जीवन्मुक्त अहंत परमात्मा को ही मुख्यवत्ति से लेने का उपदेश है और गौण रूप ये अचित् स्वरूप से प्रतिमादिकों को भी ले सकते हैं परन्तु यहाँ प्रधानता साक्षात् अहंत भगवान् की है ऐसा समझना चाहिये । [ सर्वज्ञ भगवान् इन्द्रियज्ञान से सभी पदार्थों को जानते हैं या अतीन्द्रिय ज्ञान से ? ] मीमांसक-परमात्मा साक्षात् सभी पदार्थों को जानते हुये इन्द्रिय संस्कार के अनुरोध-अनुग्रह से ही जानते हैं अन्यथा नहीं जानते हैं क्योंकि अन्यथाज्ञान-अतीन्द्रियज्ञान का होना ही प्रत्यक्ष से विरुद्ध है और इन्द्रिय संस्कारएक साथ सभी पदार्थों में ज्ञान को उत्पन्न करने में समर्थ नहीं हैं क्योंकि वे इन्द्रियां संबद्ध वर्तमान पदार्थ को ही विषय करती हैं “सम्बद्धं वर्तमानं च गृह्यते चक्षुरादिभिः" ऐसा न है इसलिये ज्ञ-सर्वज्ञ ही नहीं है क्योंकि भविष्यत और अतीत से असंबंधित पदार्थ के ज्ञान का 1 चेतयते इति चित् । 2 सर्वज्ञः। 3 अन्ययोगव्यवच्छेदार्थं । (ब्या० प्र०) 4 प्रतिबिम्बादौ। 5 प्रतिबिबादौ । (ब्या० प्र०) 6 मीमांसकः। 7 ता बहुः । (ब्या० प्र०) 8 अर्थग्रहणोन्मुखता । (ब्या० प्र०) 9 अन्यथावेदनस्य 10 प्रतिगतमक्षं प्रत्यक्षमित्यभिधानात् । (ब्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org :
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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