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________________ सर्वज्ञ का ज्ञान असाधारण है । प्रथम परिच्छेद । २४७ सुनिश्चितासम्भवबाधकप्रमाणत्वम् । तेन कः परमात्मा चिदेव लब्ध्युपयोगसंस्काराणामावरणनिबन्धनानामत्यये भवभूतां प्रभुः ।* सकलस्याद्वादन्यायविद्विषा माप्तप्रतिक्षेपप्रकारेण हि स्याद्वादिन एवाप्तस्याप्रतिक्षेपार्हत्वेन सुनिश्चितासम्भवबाधकप्रमाणत्वं सिद्धयति । [ अर्हद् भगवानेव सर्वज्ञो न चान्य इति साधनं ] तेनैवं कारिकायास्तुरीयपादो व्याख्यायते । कः परमात्मा, पराऽऽत्यन्तिकी मा लक्ष्मी सारे पदार्थों को एक साथ जान लेता है और तो क्या केवली भगवान के ज्ञानावरण, दर्शनावरण दोनों ही कर्मों का विनाश हो जाने से ज्ञान और दर्शन भी एक साथ ही उत्पन्न हो जाते हैं। इसीलिये इस ज्ञान में किसी भी प्रकार अंतराल भी नहीं पड़ता है। सर्वज्ञ भगवान् के मोहनीय कर्म का सर्वथा नाश हो जाने से मोह की पर्याय स्वरूप इच्छा का भी अभाव हो गया है। अतएव वीतराग भगवान् की वाणी इच्छा रहित है यथा अनात्मार्थं विना रागैः शास्ता शास्ति सतो हितम् । ध्वनन् शिल्पिकरस्पर्शात् मुरजः किमपेक्षते ।। इसी प्रकार से वे भगवान् हम और आप जैसे साधारण पुरुष भी नहीं हैं, परमौदारिक दिव्य शरीर के धारक महान् पुरुष हैं । अतएव हमारे सर्वज्ञ भगवान् में आप आवरण रहित—पूर्ण ज्ञान का निषेध नहीं कर सकते हैं । हां ! इतना जरूर है कि अन्य बुद्ध, कपिल, महेश्वर आदि में ये असाधारण वचन इन्द्रियजन्य ज्ञान (क्षयोपशम ज्ञान) से रहित क्षायिक ज्ञान, इच्छा का अभाव, असाधारण पुरुषत्व आदि बातें नहीं पाई जाती हैं अतः इनमें ही निरावरण ज्ञान का अभाव है ऐसा समझना चाहिये। जो युक्ति–तर्क और शास्त्र के ज्ञानी नहीं हैं वे सर्वज्ञ उनके अगोचर हैं वे केवल अकलंकनिर्दोष बुद्धि के ही गम्य हैं अथवा भट्टाकलंकदेव की बुद्धि के ही गम्य हैं। इस प्रकार से सुनिश्चितासंभवबाधक प्रमाणतत्व हेतु सिद्ध हो गया। जिस कारण से सभी तीर्थच्छेद संप्रदायवादियों में आप्तता नहीं है उसी कारण से "क: परमात्मा चित्-चैतन्य पुरुष एव-ही आवरण निमित्तक लब्धि और उपयोग के संस्कारों के नाश हो जाने पर संसारी प्राणियों के गुरु हैं।* संपूर्ण स्याद्वादन्याय के विद्वेषियों में आप्त का खंडन कर देने से स्याद्वादियों के यहाँ आप्त का निराकरण करना शक्य नहीं है इस प्रकार से सुनिश्चितासंभवबाधक प्रमाण सिद्ध हो जाता है । [ अहंत भगवान् ही सर्वज्ञ हैं अन्य कोई सर्वज्ञ नहीं हो सकता है। ] इस प्रकार से अब कारिका के चतुर्थ पाद का व्याख्यान करते हैं। "क:-परमात्मा, परा 1 येन कारणेन तीर्थच्छेदसम्प्रदायानां सर्वेषामाप्तता नास्ति तेन कारणेन । 2 इन्द्रियानिन्द्रियान्यतमावरणक्षयोपशमो लब्धिः । अर्थग्रहणव्यापार उपयोगः । तयोः संस्कारास्तेषाम् । 3 आवरणं निवन्धनं येषां ते तेषाम् । 4 भवं यन्तीति क्विपि भवेतो भवभृतस्तेषां गुरु: प्रभुर्भवेद्गुरुरिति कारिकापदस्य व्युत्पादनम् । 5 सुगतादीनाम् । 6 आप्तत्वप्रति इति पा० । (ब्या० प्र०) 7 कारणेन । (ब्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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