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________________ २४२ ] सहस्र [ कारिका ३ 'तीर्थकृत्समयानां सर्वेषामापतत्वाऽभावं साधयति । यदि पुनः संविदद्वैतादीनां ' ' स्वतः प्रमितिसिद्धेः प्रमाणान्तरतः स्वपरपक्षसाधनदूषणवचनाभावान्न परस्परविरुद्धाभिधानं स्वसंवेदनैकप्रमाणवादिनां, 'नापीन्द्रियजप्रत्यक्षैकप्रमाणवादिनां प्रत्यक्षप्रामाण्यस्य प्रत्यक्षत एव सिद्धेः, अनुमानादिप्रामाण्याभावस्यापि तत एव प्रसिद्धेः प्रमाणान्तराप्रसङ्गात् तथानेकप्रमाणवादिनामपि स्वोपगतप्रमाणसंख्या नियमस्य स्वत एव सिद्धेः प्रमाणान्तरस्योहस्याप्रसङ्गान्न विरुद्धाभिधानं संभवतीति मतं तदापि न तेषामाप्ततास्ति, स्वप्रमाव्यावृत्तेरन्यथा' नैकान्तिकत्वात् " * 10 यहाँ पर कहने का मतलब यह है कि यदि वैनयिक संप्रदाय वाले सभी मतों को प्रमाण मानेगे तो क्या होगा ? क्योंकि सभी में परस्पर में विशेष रूप से विरोध दिख रहा है । इसलिये वैनयिक भी तीर्थ विनाश संप्रदाय वाले ही सिद्ध हो जाते हैं । 1 संवेदनाद्वैतवादी आदि चारों अद्वैतवादी कहते हैं कि संवेदनाद्वैत आदि का ज्ञान स्वतः सिद्ध है, प्रमाणांतर से स्वपक्ष साधन, परपक्ष दूषण रूप वचनों का अभाव है इसलिये स्वसंवेदन रूप एक प्रमाण मानने वालों का कथन परस्पर विरुद्ध नहीं है । इंद्रिय से उत्पन्न होने वाला ही एक प्रत्यक्ष प्रमाण है ऐसा मानने वालों का भी कथन परस्पर विरुद्ध नहीं है क्योंकि प्रत्यक्ष की प्रमाणता तो प्रत्यक्ष से ही सिद्ध है । अनुमानादि की प्रमाणता का अभाव भी प्रत्यक्ष से ही प्रसिद्ध है क्योंकि प्रमागांतर का प्रसंग नहीं है । तथैव अनेक प्रमाणवादी लोगों की भी स्व स्व स्वीकृतप्रमाण की संख्या का नियम स्वतः ही सिद्ध है । ऊह नाम के भिन्न प्रमाण का प्रसंग नहीं आता है अतः परस्पर विरुद्ध कथन संभव नहीं है। ऐसा जिन लोगों का मत है उन लोगों में भी आप्तता नहीं है क्योंकि उनके यहां स्वप्रमा की ( अपने ज्ञान की ) व्यावृत्ति हो जाती है । “अन्यथा अनैकांतिक दोष आ जावेगा "* । 1 बसः । ( व्या० प्र० ) 2 संवेदनाद्वैतादयो वदन्ति स्याद्वादिनं प्रति । - हे स्याद्वादिन् यत्त्वयास्माकं परस्परविरुद्धाभिधानं प्रतिपादितं स्वस्वोपगतप्रमाणसं ख्यानियमविरोधश्च प्रतिपादितस्तद्द्द्वयमपि नास्त्यस्माकमिति । अस्योत्तरमाह स्याद्वादी ' तथापि तेषामाप्तता नास्ति, स्वप्रमाणफलज्ञानलक्षणायाः प्रमाया अभावात्' इति । 3 चतुर्णामद्वैतवादिनाम् । 4 आत्मनः 5 संविदद्वैतमेव साध्वर्थसंविद इहोपलंभनियमात् । संवेदनात् स्वस्मात्प्रमितिः प्रमाणस्य साध्यं फलं सिद्धयतीत्यर्थः । चित्राभासापि एकैव बुद्धिः श्रेयसी तस्याः बाह्यचित्र विलक्षणत्वात् सर्वे भावाः शब्दमया एव एतेषां तदाकारानुस्यूतत्वात् यथा घटसरावादयो मृद्विकारा मृदाकारानुस्यूता मृन्मयत्वेन प्रसिद्धास्तथा सर्वे भावा इत्यादेः प्रमाणांतरतः । 7 तथापीत्यर्थः । 8 प्रमिति । ( ब्या० प्र० ) ( ब्या० प्र० ) 6 परस्परविरुद्धाभिधानमिति सम्बन्धो योजनीयः । 9 स्वेन स्वकीयरूपपरिच्छित्यभावात् । (ब्या० प्र० ) 10 अन्यथा प्रमाऽभावाभावे अनैकान्तिकत्वमायाति | 11 अनेकधर्मसहितत्वात् । (ब्या० प्र० ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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