SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 326
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्ञान को निरंश मानने में दोष ] प्रथम परिच्छेद [ अन्यसिद्धांतेषु स्वयं स्वस्यैव ज्ञानं न संभवति ] न हि संविदद्वैतेय' वा स्वस्य स्वेनैव प्रमा संभवति, 2निरंशत्वात्प्रातृप्रमाणप्रमेयस्वभावव्यावृत्तौ प्रमाया व्यावृत्तेस्तदव्यावृत्तौ प्रमात्रादिस्वभावाव्यावृत्तेरैकान्तिकत्वाभावात् प्रमात्राद्यनेकस्वभावस्यैक संवेदनस्यानेकान्तात्मनोनुमननात् संवित् स्वयं स्वेन स्वं संवेदयत इति प्रतीतेः । [ २४३ " [ अन्य सिद्धांतों में स्वयं को स्वयं का ज्ञान संभव नहीं है ] विज्ञानाद्वैत में अथवा अन्य अद्वैतों में स्वयं का स्वयं के द्वारा ही ज्ञान संभव नहीं है क्योंकि की अपेक्षा तो वह ज्ञान निरंश है - अनेक धर्मों से रहित है और दूसरी बात यह भी है कि प्रामाता-आत्मा प्रमाण और प्रमेय स्वभाव की व्यावृत्ति मानने पर तो प्रमा-ज्ञप्ति की भी व्यावृत्ति हो जाती है और उस प्रमा-ज्ञप्ति की व्यावृत्ति न मानने पर प्रमाता आदि स्वभाव की भी व्यावृत्ति नहीं होने से तो एकांत का अभाव हो जाता है एवं अनेकांत की ही सिद्धि हो जाती है क्योंकि प्रमाता, प्रमेय, प्रमिति आदि अनेक स्वभाव रूप एक ज्ञान अनेकांतात्मक ही स्वीकार किया गया है । अतएव हम जैनों के यहाँ ज्ञान स्वयं स्वयं के द्वारा स्वयं का संवेदन करता है ऐसी प्रतीति हो रही है । भावार्थ - प्रमाण शब्द व्याकरण के अनुसार जैन सिद्धांत में तीन तरह से सिद्ध होता है । जब कर्तृ साधन में कर्त्ता - आत्मा प्रधान रहता है उस समय "यः प्रमिमिणोति सः प्रमाणं" जो जानता है वह प्रमाण है | जब करणसाधन में आत्मा अप्रधान है तब “प्रमीयते अनेन इति प्रमाणं" यहाँ पर आत्मा जिसके द्वारा जानता है वह प्रमाण है एवं भाव साधन में “प्रमिति मात्रं प्रमाणं" के अनुसार जानना मात्र प्रमाण है । यहाँ पर चार बातें हैं प्रमाता - आत्मा, प्रमाण - ज्ञान, प्रमेय - ज्ञेयपदार्थ और प्रमा - जानना मात्र । जैनसिद्धांत में आत्मा को इन चारों रूप से सिद्ध किया है यथा आत्मा हो प्रमाता - जानने वाला है, आत्मा ही ज्ञान रूप है, आत्मा ही स्वयं ज्ञान के द्वारा जाना जाता है अतः प्रमेय - ज्ञेय रूप भी है तथैव आत्मा ही भाव साधन में प्रमा मात्र - जानना मात्र रूप से प्रमा रूप भी है । जो बौद्ध आदि लोग ज्ञान को एक निरंश मानते हैं उनके यहाँ स्वयं का ज्ञान भी सिद्ध नहीं हो सकता है क्योंकि जब ज्ञप्ति स्वयं ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान से रहित है तब स्वयं की आत्मा ( ज्ञाता ) का ज्ञान कैसे करावेगी एवं जब स्वयं को स्वयं का ज्ञान नहीं हो सकेगा तब वह व्यक्ति किसी का ज्ञान भी कैसे कर सकेगा ? ये सब दूषण ज्ञान को अंश रहित एक रूप मानने से ही आते हैं । हम जैनों के यहाँ तो एक ज्ञान को ही कर्त्ता की अपेक्षा ज्ञाता, करण की अपेक्षा से ज्ञानरूप माना है एवं उसी को ज्ञेय और ज्ञप्ति रूप से भी माना है । अतः कुछ भी बाधा नहीं आती है क्योंकि ज्ञान स्वयं ही स्वयं के द्वारा स्वयं का वेदन-अनुभव कर रहा है और ऐसा अनुभव से सिद्ध है । Jain Education International 1 अद्वैतान्तरे । (ब्या० प्र०) 2 अनेकधर्म रहितत्वात् (बौद्धमतापेक्षया) । (ब्या० प्र० ) 3 तस्याः प्रमाया भावे सति । (ब्या० प्र०) 4 स्याद्वादसिद्धेरित्यर्थः । ( ब्या० प्र० ) 5 कुतः ? यतः । ( ब्या० प्र० ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy