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अष्टसहस्री
[ कारिका ३धिकारात्कापिलस्योहः प्रमाणं नैयायिकस्य च तत्रोपमानस्याप्यसमर्थत्वात् प्राभाकरस्य चार्थापत्तेरप्यनुमानवत्तत्राव्यापाराद्भट्टमतानुसारिणश्चाभावस्यापि तत्रानधिकृतत्वात् । तथैकमपि प्रमाणमनभ्युपगच्छतां तत्त्वोपप्लवावलम्बिनामनेकप्रमाणवादिनां तत्त्वोपप्लवोपगमस्य प्रमाणसिद्धयविनाभाविनः सकलतत्त्वोपप्लवविरुद्ध स्याभिधानमवगन्तव्यम् ।
[ परस्परविरोधदोषस्य स्पष्टीकरणं ] वैनयिकानां तु सर्वमवगतमिच्छतां परस्परविरुद्धाभिधानं विरुद्धसंवेदनं प्रसिद्धमेव, 'सुगतमतोपगमे कपिलादिमतस्य विरोधात् । ततः सिद्धो हेतुः परस्परविरोधत इति
अतएव इन प्रभाकर और भाट को भी तर्क प्रमाण मानना ही पडेगा अर्थात चार्वाक एक प्रत्यक्ष प्रमाण ही मानता है, बौद्ध और वैशेषिक प्रत्यक्ष और अनुमान ये दो प्रमाण मानते हैं। सांख्य प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम इस प्रकार तीन प्रमाण मानते हैं । नैयायिक प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम और उपमान ये चार प्रमाण मानते हैं । इन्हीं चार प्रमाणों में अर्थापत्ति मिलाकर प्रभाकर पांच प्रमाण मानता है एवं मीमांसक और जैमिनीय इन्हीं पांच प्रमाणों में एक अभाव प्रमाण मिलाकर छह प्रमाण मानते हैं।
तथा एक भी प्रमाण को न स्वीकार करते हुए तत्त्वोपप्लववादी अनेक प्रमाणवादी हो जाते हैं "न एकः अनेक:" से जहाँ एक नहीं वहाँ अनेक सिद्ध हो जाता है। उनकी तत्त्वोपप्लव-शून्यवाद की स्वीकृति प्रमाण सिद्धि से अविनाभावी है वह संपूर्णतत्त्वोपप्लव से विरुद्ध-तत्त्व के सद्भाव का ही कथन कर देती है ऐसा समझना चाहिये । अर्थात् तत्त्वोपप्लवग्राही प्रमाण सत्यभूत सिद्ध हो जाता है एवं तत्त्वोपप्लव रूप प्रमेय भी सत्यरूप सिद्ध हो जाता है । अतः सम्पूर्ण तत्त्व के अभाव का कथन ही विरुद्ध हो जाता है।
[ परस्पर विरोध दोष का स्पष्टीकरण ] सभी को अवगत रूप-मान्य रूप स्वीकार करते हुये वैनयिकों का परस्पर विरुद्ध कथन करने वाला विरुद्ध ज्ञान प्रसिद्ध ही है क्योंकि सुगत मत की स्वीकृति में सांख्य के द्वारा स्वीकृत मत विरुद्ध हो जाता है । इसलिये "परस्पर विरोधतः" यह हेतु सिद्ध ही है और यह सभी तीर्थकृत् संप्रदायों में आप्त के अभाव को सिद्ध कर देता है।
1 ऊहग्रहणे । 2 प्रत्यक्षमनुमानं च शाब्दं चोपमया सह । अर्थापत्तिरभावश्च षट् प्रमाणानि जैमिनेः ॥ जैमिने: षट् प्रमाणानि चत्वारि न्यायवादिनः साङ्ख्यस्य त्रीणि वाच्यानि द्वे वैशेषिकबौद्धयोः ।। श्लोकानूक्तमपि प्रभाकरस्य पञ्च प्रमाणानीति ज्ञेयम् । 3 अनधिकरणात् । अत्रोपयोगिश्लोकद्वयमिदं । प्रत्यक्ष चानुमानञ्च शाब्दं चोपमया सह । अर्थापत्तिरभावश्च षट् प्रमाणानि जैमिनः ॥१॥ जैमिने षट्प्रमाणानि चत्वारि न्यायवेदिनः । सांख्यस्य त्रीणि वाच्यानि द्वे वंशेषिकबौद्धयोः ॥२॥ प्राभाकरस्य पंचप्रमाणानीति श्लोकानुक्तमपि ज्ञातव्यं । (ब्या० प्र०) 4 यतस्तत्त्वोपप्लवग्राहि प्रमाणं सत्यभूतमायातं तत्त्वोपप्लवरूपः प्रमेयश्च ततः सकलतत्त्वोपप्लवकथनस्य विरोधः । 5 कुतः ? 6 कपिलादिगतोगमस्य इति पा०। (ब्या० प्र०)
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