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________________ तर्क प्रमाण की आवश्यकता ] प्रथम परिच्छेद [ २३६ _ [ तर्केण विनानेकप्रमाणवादिनां प्रमाणव्यवस्थापि न तत्त्वव्यस्वथां कत्तु क्षमा ] तथानेकप्रमाणवादिनां 'कपिल कणभक्षाक्षपाद जैमिनिमतानुसारिणां स्वोपगतप्रमाणसंख्यानियमविरुद्धस्य सामस्त्येन साध्यसाधनसम्बन्धज्ञानस्याभिधानं बोद्धव्यं, प्रमाणान्तरस्योहस्य सिद्धेः । यावान्कश्चिद्धमः स सर्वोप्यग्निजन्माऽनग्निजन्मा वा न भवतीति प्रतिपत्तौ न प्रत्यक्षस्य सामर्थ्य, "तस्य सन्निहितविषयप्रतिपत्तिफलत्वात् । नाप्यनुमानस्य', अनवस्थानात्, तद्व्याप्तेरप्यपरानुमानगम्यत्वात् । इति वैशेषिकस्योहः प्रमाणान्तरमनिच्छतोप्यायातम् । एतेन सौगतस्य प्रमाणान्तरमापादितम् । तथागमस्यापि व्याप्तिग्रहणेऽन जि . [ तर्क प्रमाण के न मानने से हानि ] तथा अनेक प्रमाणवादी कपिल-सांख्य, कणभक्ष-वैशेषिक, अक्षपाद--नैयायिक, जैमिनिप्रभाकरभट्ट के मत का अनुसरण करने वालों को अपने द्वारा स्वीकृत प्रमाण की संख्या के नियम से विरुद्ध समस्त रीति से साध्य साधन के सम्बन्ध का ज्ञान रूप तर्क नाम का प्रमाण अवश्य ही स्वीकार करना चाहिये । वह भिन्न प्रमाण रूप ऊह नाम से प्रसिद्ध ही है । अर्थात् इन सभी ने दो, तीन, चार, पाँच, छह आदि रूप से प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमान, अर्थापत्ति और अभाव रूप जो प्रमाण मानें हैं उनमें तर्क प्रमाण न होने से साध्य साधन के अविनाभाव को ग्रहण करने वाला कोई भी प्रमाण नहीं है, एक तर्क ही ऐसा प्रमाण है जो व्याप्ति को विषय कर सकता है। इसीलिये आचार्य उस तर्क को पृथक् प्रमाण सिद्ध करते हैं । जितना कुछ भी धूम है वह सभी अग्नि से उत्पन्न हुआ है अथवा अनग्नि से उत्पन्न नहीं हुआ है इस प्रकार के ज्ञान को कराने में प्रत्यक्ष की सामर्थ्य नहीं है, क्योंकि वह प्रत्यक्ष सन्निहित-वर्तमान विषय के ज्ञान का फलस्वरूप है । अनुमान भी उस व्याप्ति को जानने में समर्थ नहीं है, क्योंकि अनवस्था आ जाती है कारण यह है कि वह व्याप्ति भी अन्य अनुमान से गम्य होगी। इस प्रकार से वैशेषिक के यहाँ तर्क नाम का प्रमाण स्वीकार न करने पर भी आ ही जाता है। इसी कथन से सौगत के यहाँ भो तर्क नाम का भिन्न प्रमाण आ ही जाता है। तथा आगम भी व्याप्ति को ग्रहण करने का अधिकारी नहीं है अत: कपिल-सांख्य को तर्क प्रमाण मानना ही पड़ेगा एवं व्याप्ति को ग्रहण करने में उपमान प्रमाण भी असमर्थ है अतः आप नैयायिक को भी इस तर्क को मानना ही होगा। प्रभाकर के यहाँ भी अनुमान के समान अर्थापत्ति से व्याप्ति का ज्ञान न होने से तथा भट्टमतानुसारी को मान्य अभाव प्रमाण भी उसे नहीं जान सकता है 1 कपिल:=साङ्ख्यः । 2 कणभक्षो-वैशेषिकः। 3 अक्षपादो-नैयायिकः। 4 जैमिनि:=प्रभाकरभट्टः। 5 ऊहाख्यस्य । 6 प्रत्यक्षस्य। 7 ऊहपरिज्ञाने सामर्थ्यम् । 8 अनिष्टम् । 9 वैशेषिकस्य प्रमाणान्तरप्रतिपादनेन । 10 सौगतेनापि प्रत्यक्षानुमानाख्यप्रमाणद्वयस्याभ्युपगमात् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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