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________________ २३८ ] अष्टसहस्री [ कारिका ३ स्याभिधान' प्रतिपत्तव्यं, तथा प्रमाणान्तरसिद्धेः । परोपगमात्तत्स्वीकरणे 'स्वयं प्रमाणेतरसामान्यादिव्यवस्थानुपपत्तेः कुतः प्रत्यक्षकप्रमाणवादः', 'अतिप्रसङ्गात् । ___ यदि आप कहें कि पर की स्वीकृति से हम प्रमाणांतर को स्वीकार करके निषेध करते हैं तब तो स्वयं प्रमाण और प्रमाणाभास रूप सामान्य की व्यवस्था नहीं हो सकने से आपके यहाँ प्रत्यक्ष रूप ही एकप्रमाणवाद कैसे सिद्ध होगा? अन्यथा अतिप्रसंग आ जावेगा । अर्थात् अनुमान के सद्भाव में भी एकप्रमाणवाद को यदि चार्वाक मानें तब तो अनेक प्रमाणवादी वैशेषिकादिकों को भी एकप्रमाणवादिता का प्रसंग आ जावेगा। भावार्थ-चार्वाक केवल एक प्रत्यक्ष ही प्रमाण मानता है उसके प्रति आचार्य कहते हैं कि प्रमाणेतरसामान्य स्थितेरन्यधियो गतेः । प्रमाणांतरसद्भावः प्रतिषेधाच्च कस्यचित् ।। अर्थ-प्रमाण सामान्य और अप्रमाण सामान्य की स्थिति होने से शिष्यादि की बुद्धि के ज्ञान से और परलोकादि के प्रतिषेध से प्रमाणान्तर अर्थात् अन्य प्रमाणरूप अनुमान का सद्भाव सिद्ध होता है । तात्पर्य यह है कि अनुमान प्रमाण के माने बिना न तो प्रमाण सामान्य ही सिद्ध हो सकता है और न अप्रमाण सामान्य ही, क्योंकि किसी भी ज्ञान सामान्य को प्रमाण सिद्ध करने में उसका अविसंवादी होना आवश्यक है तथैव मिथ्याज्ञान का विसंवाद के साथ अविनाभाव संबंध है। अतः प्रमाण सामान्य और अप्रमाण सामान्य को सिद्ध करने के लिये अनुमान प्रमाण का मानना आवश्यक ही हो जाता है। दूसरी बात यह है कि चार्वाक "एक प्रत्यक्ष ही प्रमाण है" इस प्रकार जब दूसरों को समझावेगा तब अन्य पुरुष के वचन चातुर्य आदि के द्वारा उसकी बुद्धि रूप कार्य का अनुमान करके ही तो समझावेगा क्योंकि वचन चातुर्य आदि बुद्धि के कार्य हैं तथैव पुण्य, पाप परलोकादि का निषेध करने के लिये उस चार्वाक को अनुपलब्धि रूप हेतु का आश्रय लेना ही पड़ेगा। अर्थात् प्रमाण और अप्रमाण सामान्य की व्यवस्था संवाद और विसंवाद रूप स्वभाव हेतु से उत्पन्न हुए अनुमान से होती है तथा वचन व्यापारादि कार्य हेतु से उत्पन्न हुआ जो अनुमान है उस अनुमान से पर की बुद्धि आत्मा आदि का ज्ञान होता है पूनः उसको समझाया जाता है एवं अनुपलब्धि हेतुक अनुमान से परलोक, पुण्य, पापादि का निषेध किया जाता है अतः चार्वाक के यहाँ अनुमान प्रमाण बिना माने ही जबरदस्ती आ जाता है। चार्वाक उसका निषेध नहीं कर सकते हैं और यदि करते हैं तो उनके यहाँ प्रत्यक्ष प्रमाण भी सिद्ध नहीं हो सकता है। 1 अस्तीति । (ब्या० प्र०) 2 तथा सति । 3 अनुमान । (ब्या० प्र०) 4 "प्रमाणेतरसामान्यस्थितेरन्यधियो गतेः । प्रमाणान्तरसद्भावः प्रतिषेधाच्च कस्यचित्" इति वचनात् । 5 स्वस्य । (ब्या० प्र०) 6 अन्यथा। 7 अनुमानसद्भावेप्येकप्रमाणवादिता चार्वाकस्य यदि स्यात्तदानेकप्रमाणवादिनां वैशेषिकादीनामप्येकप्रमाणवादिताप्रसङ्गात् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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