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( २६ ) ऐसी बात नहीं है । वास्तव में वह इन्हीं आचार्यदेव की रचना है यह बात उसी श्रावकाचार के निम्न पद्यों से स्पष्ट है। यथासूत्रे तु सप्तमेऽप्युक्ताः पृथग्नोक्तास्तदर्थतः । अवशिष्ट: समाचारः सोऽत्रैव कथितो ध्र वम् ।
॥४६४॥ अर्थात्-इस श्रावकाचार में श्रावकों की षट्आवश्यक क्रियाओं का वर्णन करते हुये उनके अणुव्रत आदिकों का भी वर्णन किया है । पुनः यह संकेत दिया है कि मैंने "तत्त्वार्थसूत्र" के सप्तम अध्याय में श्रावक के १२ व्रतों का और उनके अतीचारों का विस्तार से कथन किया है अतः यहाँ उनका कथन नहीं किया है। बाकी जो आवश्यक क्रियायें 'देवपूजा, गुरुपास्ति, स्वाध्याय, संयम, तप और दान का वर्णन वहाँ नहीं किया है उन्हीं को यहाँ पर कहा गया है।"
पुनरपि अंतिम श्लोक में कहते हैं किइति वृत्तं मयेष्टं सश्रये षष्ठमकेऽखिलम् । चान्यन्मया कृते ग्रंथेऽन्यस्मिन् दृष्टव्यमेव च ।
॥४७६॥ इस प्रकार से मैंने इस श्रावकाचार की छठी अध्याय में श्रावक के लिये इष्ट चारित्र का वर्णन किया है। अन्य और जो कुछ भी श्रावकों का आचार है वह सब मेरे द्वारा रचित अन्य ग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्र) से देख लेना चाहिये।
___ इस प्रकार के उद्धरणों से यह निश्चित हो जाता है कि श्रावकाचार भी पूज्य उमास्वामी आचार्य की ही रचना है।
यद्यपि इस श्रावकाचार में भाषा शैली की अतीव सरलता है फिर भी उससे यह नहीं कहा जा सकता है कि यह रचना उनकी नहीं है, क्योंकि सूत्रग्रन्थ में सूत्रों की रचना सूत्ररूप ही रहेगी और श्लोक ग्रन्थों में श्लोकरूप। जिस प्रकार से श्री कंदकंददेव द्वारा रचित समयसार, प्रवचनसार आदि ग्रन्थों की रचना अतीव प्रौढ है तथा अष्टपाहुड़ के गाथासूत्रों की रचना उतनी प्रौढ़ न होकर सरल है फिर भी एक ही आचार्य कुंदकुंद इन ग्रन्थों के रचयिता मान्य हैं वैसे ही यहाँ भी समझना चाहिये और उमास्वामी आचार्य की प्रमाणता के अनुरूप ही उनके इस श्रावकाचार को भी प्रमाण मानकर उसका भी स्वाध्याय करना चाहिये ।
श्री समंतभद्र स्वामी
जिस प्रकार गृद्धपिच्छाचार्य संस्कृत के प्रथम सूत्रकार हैं, उसी प्रकार जैनवाङ्मय में स्वामी समंतभद्र प्रथम संस्कृत कवि और प्रथम स्तुतिकार हैं। ये कवि होने के साथ-साथ प्रकाण्ड दार्शनिक और गंभीर चितक भी हैं । स्तोत्रकाव्य का सूत्रपात भाचार्य समंतभद्र से ही होता है। इनकी स्तुतिरूप दार्शनिक रचनाओं पर अकलंक और विद्यानंद जैसे उद्भट आचार्यों ने टीका और विवृत्तियाँ लिखकर मौलिक ग्रन्थ रचयिता का यश द्विगुणित किया है । वीतरागी तीर्थंकर की स्तुतियों में दार्शनिक मान्यताओं का समावेश करना असाधारण प्रतिभा का द्योतक है।
___आदिपुराण में आचार्य जिनसेन इन्हें कवियों के विधाता कहते हैं और उन्हें गमक आदि चार विशेषणों से विशिष्ट बतलाते हैं । यथा
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