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नमः समंतभद्राय महते कविवेधसे । यद्वचोवज्रपातेन निर्भिन्ना कुमताद्रयः ॥ कवीनां गमकानां च वादिनां वाग्मिनामपि । यशः सामन्तभद्रीयं मूनि चूडामणीयते ॥
मैं कवि समंतभद्र को नमस्कार करता हूँ, जो कि कवियों के लिये ब्रह्मा हैं और जिनके वचनरूपी वज्रपात से मिथ्यामतरूपी पर्वत चूर-चूर हो जाते हैं । कविगण, गमकगण, वादीगण और वाग्मीगण इन सभी के मस्तक पर श्री समंतभद्र स्वामी का यश चूड़ामणि के समान शोभित होता है ।
स्वतन्त्र कविता करने वाले “कवि" कहलाते हैं, शिष्यों को मर्म तक पहुँचा देने वाले “गमक", शास्त्रार्थ करने वाले "वादी" और मनोहर व्याख्यान देने वाले "वाग्मी" कहलाते हैं ।
श्रीशुभचंद्र आचार्य, श्रीवर्द्धमानसूरि, श्रीजिनसेनाचार्य और श्रीवादीभसिंहसूरी आदि ने अपने-अपने ग्रन्थ ज्ञानार्णव, वरांगचरित, अलंकार चिंतामणि और गद्यचितामणि आदि में श्री समंतभद्र स्वामी की सुन्दर-सुन्दर श्लोकों में स्तुति की है ।
ये जैनधर्म और जैन सिद्धांत के मर्मज्ञ विद्वान होने के साथ-साथ तर्क, व्याकरण, छन्द, अलंकार एवं काव्य, कोष आदि विषयों में पूर्णतया अधिकार रखते थे । सो ही इनके ग्रन्थों से स्पष्ट झलक जाता है । इन्होंने जैन विद्या के क्षेत्र में एक नया आलोक विकीर्ण किया है | श्रवणबेलगोला के अभिलेखों में तो इन्हें जिनशासन के प्रणेता और भद्रमूर्ति कहा गया है ।
इनका जीवन परिचय, मुनिपद, गुरु-शिष्य परंपरा, समय और इनके रचित ग्रन्थ इन पांच बातों पर यहाँ संक्षेप में प्रकाश डाला जायेगा ।
जीवन परिचय
इनका जन्म दक्षिण भारत में हुआ था । इन्हें चोल राजवंश का राजकुमार अनुमित किया जाता है । इनके पिता उरगपुर (उरपुर) के क्षत्रिय राजा थे। यह स्थान कावेरी नदी के तट पर फणिमण्डल के अन्तर्गत अत्यन्त समृद्धशाली माना गया है | श्रवणबेलगोला के दोरवली जिनदासशास्त्री के भंडार में पाई जाने वाली आप्तमीमांसा की प्रति के अन्त में लिखा है - " इति फणिमंडलालंकारस्योरगपुराधिपसूनोः श्रीस्वामीसमंतभद्रमुनेः कृतौ आप्तमीमांसायाम्”-- - इस प्रशस्तिवाक्य से स्पष्ट है कि समंतभद्र स्वामी का जन्म क्षत्रियवंश में हुआ था और उनका जन्मस्थान उरगपुर है ।
इनका जन्म नाम शांतिवर्मा बताया जाता है " स्तुतिविद्या" अपरनाम “जिनस्तुतिशतक" के ११६ वें पद्य में कवि और काव्य का नाम चित्रबद्धरूप में अंकित है । इस काव्य के छह आरे और नव वलय वाली चित्ररचना पर से ‘“शांतिवर्मकृतम्” और “जिनस्तुतिशतम्" ये दो पद निकलते हैं । संभव है यह नाम माता-पिता के द्वारा रखा गया हो और "समंतभद्र" मुनि अवस्था का हो ।
मुनिदीक्षा और भस्मकव्याधि
मुनि दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् जब वे मणुवकहल्ली स्थान में विचरण कर रहे थे कि उन्हें भस्मक
1. महापुराण, भाग १, । (४४-४३) ।
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