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विरुदावलि में भी कुन्दकुन्द के पट्ट पर उमास्वाति को माना है। "दशाध्यायसमाक्षिप्तजैनागमतत्त्वार्थसूत्रसमूहश्रीमदुमास्वातिदेवानाम् ।।३॥"
इन सभी उदाहरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि श्री कुन्दकुन्ददेव के पट्ट पर ही ये उमास्वामी आचार्य हुये हैं और इन्होंने अपना आचार्य पद बलाकपिच्छ या लोहाचार्य को सौंपा है।
तत्त्वार्थसूत्र रचना-इन आचार्य महोदय की "तत्त्वार्थसूत्र" रचना यह अपूर्व रचना है । यह ग्रन्थ जैन धर्म का सार ग्रन्थ होने से इसके मात्र पाठ करने का या सुनने का फल एक उपवास बतलाया गया है यथा
दशाध्याये परिच्छिन्ने तत्त्वार्थे पठिते सति । फलं स्यादुपवासस्य भाषितं मुनिपुंगवैः ।।
दश अध्याय से परिमित इस तत्त्वार्थसूत्र के पढ़ने से एक उपवास का फल होता है ऐसा मुनिपुंगवों ने कहा है । वर्तमान में इस ग्रन्थ को जैन परम्परा में वही स्थान प्राप्त है, जो कि हिन्दू धर्म में "भगवद्गीता" को, इस्लाम में "कुरान" को और ईसाई धर्म में “बाइबिल" को प्राप्त है । इससे पूर्व प्राकृत में ही जैनग्रन्थों की रचना की जाती थी।
इस ग्रन्थ को दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्परा में समानरूप से ही महानता प्राप्त है । अनेक आचार्यों ने इस पर टीका ग्रन्थ रचे हैं। श्री देवनन्दि अपरनाम पूज्यपाद आचार्य ने इस पर "सर्वार्थसिद्धि" नाम से टीका रची है जिसका अपरनाम "तत्त्वार्थवत्ति" भी है। श्री भटटाकलंकदेव ने तत्त्वार्थराजवातिक नाम से तथा विद्यानन्द महोदय ने "तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक" नाम से दार्शनिक शैली में टीका ग्रन्थों का निर्माण करके इस ग्रन्थ के अतिशय महत्त्व को सूचित किया है। श्री श्रुतसागरसूरि ने "तत्त्वार्थवत्ति" नाम से टीका रची है और अन्य-अन्य कई टीकायें उपलब्ध हैं। श्री समन्तभद्र स्वामी ने इसी ग्रन्थ पर "गन्धहस्तिमहाभाष्य" नाम से "महाभाष्य" रचा है जो कि आज उपलब्ध नहीं हो रहा है।
दशाध्यायपूर्ण इस ग्रन्थ का एक मंगलाचरण ही इतना महत्त्वशाली है कि आचार्य श्री समंतभद्र ने उस पर "आप्तमीमांसा" नाम से आप्त की मीमांसा-विचारणा करते हये एक स्तोत्र ग्रन्थ रचा है, उस पर श्री भट्टाकलंकदेव ने "अष्टशती' ग्रन्थ रचा है। इसी पर श्री विद्यानंद आचार्य ने "अष्टसहस्री" नाम से महान् उच्चकोटि का दार्शनिक ग्रन्थ रचा है। श्री विद्यानंद आचार्य ने तत्त्वार्थ सूत्र पर ही "श्लोकवातिक" नाम से जो महा
रचना की है उसमें सबसे प्रथम मंगलाचरण की टीका में ही उन्होंने १२४ कारिकाओं में आप्त परीक्षा ग्रन्थ की रचना की एवं उसी पर स्वयं ने ही स्वोपज्ञ टीका रची है।
___ कुछ विद्वान् "मोक्षमार्गस्य नेतारं" इत्यादि मंगलाचरण को श्री उमास्वामी आचार्य द्वारा रचित न मान कर किन्हीं टीकाकारों का कह रहे थे । परन्तु "श्लोकवातिक" और "अष्टसहस्री" ग्रन्थ में उपलब्ध हुये अनेक प्रमाणों से अब यह अच्छी तरह निर्णीत किया जा चुका है कि यह मंगलश्लोक श्री सूत्रकार आचार्य द्वारा ही विरचित है।
इन महान् आचार्य के द्वारा रचा हुआ एक श्रावकाचार भी है जो कि "उमास्वामी-श्रावकाचार" नाम से प्रकाशित हो चुका है । कुछ विद्वान् इस श्रावकाचार को इन्हीं सूत्रकर्ता उमास्वामी का नहीं मानते हैं, किन्तु
1. वही पुस्तक, पृ० ४३१ ।
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