________________
( २७ )
श्रवणबेलगोला के एक अभिलेख में गृद्धपिच्छ नाम की सार्थकता और कून्दकून्द के वंश में उनकी उत्पत्ति बतलाते हुये उनका "उमास्वाति" नाम भी दिया है । यथा
अभूदुमास्वातिमुनिः पवित्रे, वंशे तदीये सकलार्थवेदी । सूत्रीकृतं येन जिनप्रणीतं, शास्त्रार्थजातं मुनिपुंगवेन ॥ स प्राणिसंरक्षणसावधानो, बभार योगी किल गुद्धपक्षान् ।
तदा प्रभृत्येव बुधा यमाहुराचार्यशब्दोत्तरगृद्ध पिच्छम् ॥ आचार्य कुन्दकुन्द के पवित्र वंश में सकलार्थ के ज्ञाता उमास्वाति मुनीश्वर हुये, जिन्होंने जिनप्रणीत द्वादशांगवाणी को सूत्रों में निबद्ध किया। इन आचार्य ने प्राणि रक्षा हेतु गृद्धपिच्छों को धारण किया। इसी कारण वे गृद्धपिच्छाचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुये । इस प्रमाण में गृद्धपिच्छाचार्य को "सकलार्थवेदी" कहकर "श्रतकेवली सदश" भी कहा है। इससे उनका आगम सम्बन्धी सातिशय ज्ञान प्रकट होता है।
इस प्रकार दिगम्बर साहित्य और अभिलेखों का अध्ययन करने से यह ज्ञात होता है कि तत्त्वार्थसूत्र के रचयिता गृद्धपिच्छाचार्य, अपरनाम उमास्वामि या उमास्वाति हैं ।
समय निर्धारण और गरु-शिष्य परम्परा :-नंदिसंघ की पट्टावली और श्रवणबेलगोला के अभिलेखों से यह प्रमाणित होता है कि ये गृद्धपिच्छाचार्य कुन्दकुन्द के अन्वय में हए हैं। नदिसंघ की पट्टावली विक्रम के राज्याभिषेक से प्रारम्भ होती है। वह निम्न प्रकार है
१. भद्रबाहु द्वितीय (४), २. गुप्तिगुप्त (२६), ३. माघनंदि (३६), ४. जिनचन्द्र (४०), ५. कुन्दकुन्दाचार्य (४ ), ६. उमास्वामि (१०१), ७. लोहाचार्य (१४२)....।
अर्थात् "नंदिसंघ की पट्टावली में बताया है कि उमास्वामी वि० सं० १०१ में आचार्य पद पर आसीन हये. वे ४० वर्ष आठ महीने आचार्य पद पर प्रतिष्ठित रहे । उनकी आयु ८४ वर्ष की थी और विक्रम सं० १४२ में उनके पट पर लोहाचार्य द्वितीय प्रतिष्ठित हुये। प्रो० हार्नले, डा० पिटर्सन और डा० सतीशचन्द्र ने इस पटटावली के आधार पर उमास्वाति को ईसा की प्रथम शताब्दी का विद्वान माना है।"
"किन्तु स्वयं नेमिचन्द्र ज्योतिषाचार्य ने इन्हें ईस्वी सन् की द्वितीय शताब्दी का अनुमानित किया है।" कुछ भी हो ये आचार्य श्री कुन्दकुन्द के शिष्य थे। यह बात अनेक प्रशस्तियों से स्पष्ट है । यथा
तस्मादभूद्योगिकुलप्रदीपो, बलापिच्छः स तपोमहद्धिः ।
यदंगसंस्पर्शनमात्रतापि, वायुविषादीनमृतीचकार ॥१३॥
इन योगी महाराज की परम्परा में प्रदीपस्वरूप महद्धिशाली तपस्वी बलाकपिच्छ हुये । इनके शरीर के स्पर्शमात्र से पवित्र हई वायु भी उस समय लोगों के विष आदि को अमत कर देती थी।
1. जैन शिलालेख संग्रह, प्रथम भाग, अभिलेख सं० १०८, पृ० २१०-११ । 2. भगवान् महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, भाग २, पृ० १५२ । 3. वही पुस्तक, पृ० ४११ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org