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का यह प्रथम भाग पुनः आपके हाथों में पहुंच रहा है । इस बीच में ग्रन्थमाला के द्वितीय पुष्प से लेकर सत्तानवें पुष्प तक छप चुके हैं । आगे इसके तृतीय और चतुर्थ भाग भी शीघ्र ही प्रकाशित होवें ऐसी भावना है।
न्यायसार कुंचिका है
इन बड़े-बड़े न्यायग्रन्थों को-जैन दर्शन के ग्रन्थों को सरलता से समझने के लिये मैंने परीक्षामुख, न्यायदीपिका, षट्दर्शन समुच्चय आदि ग्रन्थों का अच्छी तरह मनन करके उनमें से कुछ सारभूत सूत्रों को लेकर एक "न्यायसार" नाम से छोटी-सी पुस्तक लिखी है उसे अष्टसहस्री के प्रथम भाग के परिशिष्ट में दे दिया था। यह एक स्वतन्त्र पुस्तक है। अष्टसहस्री के पाठकों को उस "न्यायसार" का अध्ययन अवश्य करना चाहिये। यह छोटीसी पुस्तक न्यायशास्त्रों में प्रवेश पाने के लिये कुंचिका (चाबी) के समान है।
आगे इस "अष्टसहस्री" ग्रंथराज के मूल कर्ता-आधारभूत आचार्य श्री उमा स्वामी आदि चारों आचार्यों का कुछ परिचय यहाँ दिया जा रहा है।
श्री उमास्वामी आचार्य तत्त्वार्थसूत्र ग्रन्थ के रचयिता आचार्य श्री उमास्वामी हैं। इनको उमास्वाति भी कहते हैं। इनका अपरनाम गृद्धपिच्छाचार्य है । धवलाकार ने इनका नामोल्लेख करते हुये कहा है कि
__ "तह गिद्धपिछाइरियप्पयासिदतच्चत्थसुत्तेवि" । उसी प्रकार से गृद्धपिच्छाचार्य के द्वारा प्रकाशित तत्त्वार्थसूत्र में भी कहा है। इनके इस नाम का समर्थन श्री विद्यानन्द आचार्य ने भी किया है । यथा
"एतेन गृद्धपिच्छाचार्यपर्यंतमुनिसूत्रेण व्यभिचारता निरस्ता"।" इस कथन से गृद्धपिच्छाचार्य पर्यंत मुनियों के सूत्रों से व्यभिचार दोष का निराकरण हो जाता है।
तत्त्वार्थ सूत्र के किसी टीकाकार ने भी निम्न पद्य में तत्त्वार्थसूत्र के रचयिता का नाम गृद्धपिच्छाचार्य दिया है
तत्तवार्थसूत्रकर्तारं गृद्धपिच्छोपलक्षितम् । वंदे गणीन्द्रसंजातमुमास्वामिमुनीश्वरम् ॥
"गृद्धपिच्छ” इस नाम से उपलक्षित, तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता, गण के नाम उमास्वामी मुनीश्वर की मैं वन्दना करता हूँ।
श्री वादिराज ने भी इनके गृद्धपिच्छ नाम का उल्लेख किया हैअतुच्छगुणसंपातं गृद्धपिच्छं नतोऽस्मि तम् । पक्षीकुर्वन्ति यं भव्या निर्वाणायोत्पतिष्णवः ॥
आकाश में उड़ने की इच्छा करने वाले पक्षी जिस प्रकार अपने पंखों का सहारा लेते हैं उसी प्रकार मोक्ष नगर को जाने के लिये भव्य लोग जिस मुनीश्वर का सहारा लेते हैं, उन महामना, अगणित गुणों के भंडार स्वरूप गृद्धपिच्छ नामक मुनिमहाराज के लिये मेरा सविनय नमस्कार हो । 1. षट्खंडागम, धवलाटीका, जीवस्थान, काल अनुयोग द्वार पृ० ३१६ । 2. तत्त्वार्थश्लोक वार्तिक पृ०६ । 3. पार्श्वनाथचरित १, १६ ।
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