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अष्टसहस्री
[ कारिका ३
के आकार ज्ञानमात्र में ही हैं तब तो पदार्थ के अभाव में अनेकों क्रियायें संभव नहीं हो सकेंगी।
इस पर बौद्ध ने कहा है कि भाई ! जितने भी कार्य दिख रहे हैं वे सब कल्पना मात्र हैं केवल संवत्ति से ही दिख रहे हैं । तब तो भाई ! आप का विज्ञान तत्त्व भी कल्पना मात्र ही रहा। यदि एक ज्ञान तत्त्व को वास्तविक कहोगे और सभी को कल्पना मात्र कहोगे तब भाई ! कहने वाले आप और सुनने वाले हम सभी कल्पित ही रहेंगे तो आपका तत्त्व प्रतिपादन एवं उसकी व्यवस्था भी कल्पित ही सिद्ध होगी। इसलिये जगत् को चेतन अचेतन से अंतरंग, बहिरंग तत्त्व रूप मानना ही पडेगा और विज्ञानमात्र तत्त्व को कल्पित सिद्ध करके वास्तविक द्वैत की सिद्धि ही निधि सिद्ध हो जावेगी।
"चित्राद्वैतवाद" बौद्धों के यहाँ विज्ञानाद्वैतवाद के समान ही चित्राद्वैतवाद भी है। इन दोनों में भेद इतना ही है कि विज्ञानाद्वैतवादी ज्ञान में होने वाले नीलादि, घटपटादि आकारों को भ्रांत-कल्पित-झूठ मानते हैं और चित्राद्वैतवादी उन आकारों को सत्य मानता है, किंतु दोनों के यहाँ अद्वैत का साम्राज्य है।
चित्राद्वैतवादी का कहना है कि अनेक नीलादि आकार को धारण करने वाली एक बुद्धि ही एकमात्र तत्त्व है । संसार में और कुछ भी तत्त्व नहीं है।
इस मान्यता पर जैनाचार्यों का कहना है कि भाई ! चित्र ज्ञान भी कहो और एक ज्ञान भी कहो यह बात तो परस्पर विरुद्ध ही है । जब चित्रज्ञान है तब उसमें अनेकों आकार पाये जाते हैं। पुनः आप उसे अद्वैत नहीं कह सकते हैं । यदि चित्रज्ञान के अनेक आकारों को संवृत्तिरूप कहो तब तो आपका अद्वैत भी संवृत्तिरूप ही सिद्ध होगा। इसलिये क्रम तथा अक्रम से नीलादि अनेक पदार्थ के आकार को ग्रहण करने वाले ज्ञान से युक्त एक आत्मा का ही अस्तित्व मान लो, साथ ही साथ बाह्य पदार्थों को भी वास्तविक मानकर द्वैत सिद्धांत में आ जाओ, क्योंकि चित्राद्वैत की सिद्धि होना कथमपि शक्य नहीं है।
"शून्याद्वैतवाद" बौद्ध के चार भेदों में से एक माध्यमिक है, यह सकल जगत् को शून्यरूप ही मानता है इसका कहना है कि जगत् में चेतनाचेतन आदि सभी पदार्थ काल्पनिक हैं, इन्द्रजाल के समान हैं अतएव यह सारा जगत् शून्य रूप ही है शून्यवादी एक ज्ञान में अनेक आकार भी नहीं मानता है।
इस पर जैनाचार्य ने समझाया है कि भाई ! यदि एक ज्ञान में अनेक आकार नहीं मानोगे तो नील कमल के एक अंश का ग्राहक ज्ञान उसी कमल के दूसरे अंश को ग्रहण नहीं कर सकेगा अन्यथा एक ज्ञान में अंश की अपेक्षा अनेक आकार आ जावेंगे और यदि एक ज्ञान एक समय में कमल के एक ही अंश को ग्रहण करेगा तो अन्य सभी अंशों को ग्रहण न कर सकने से उस कमल का अस्तित्व नहीं सिद्ध होगा और न कमल दीखेगा एवं प्रमाण जिसे ग्रहण नहीं करेगा वह प्रमेय रूप भी कैसे होगा,
और जब प्रमेय का अस्तित्व नहीं मानोगे तो ये ग्राम, नगर, बगीचे, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि जो दिख रहे हैं उनका लोप आप कैसे करेंगे ? संसार में प्रतीति के बल से सभी वस्तुओं का अस्तित्व प्रायः
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