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________________ अद्वैतवादियों का खंडन ] प्रथम परिच्छेद [ २३५ सभी वादी प्रतिवादी मान लेते हैं आप दिखते हुये सारे विश्व को शून्य रूप कहते हुये तो पहले आप अपने आपको समाप्त कर लेंगे एवं शून्यवाद का अस्तित्व भी सिद्ध नहीं हो सकेगा। यदि शून्यवाद का अस्तित्व मानोगे तब तो सर्वथा इसका खंडन तो अभावैकांत का निरसन करते समय आचार्य स्वयं ही बहुत ही सुन्दर ढंग से करेंगे। "ब्रह्माद्वैतवाद" ब्रह्माद्वैतवादी का कहना है कि यह सम्पूर्ण विश्व एक परमब्रह्मस्वरूप ही है । जगत् में जो कुछ भी प्रतिभासित हो रहा है वह सब परमब्रह्म की पर्याय है । सभी वस्तुएँ सत् रूप हैं बस ! इस सत् का जो प्रतिभास है वही परमब्रह्म है । इस ब्रह्मवाद का खंडन आगे चलकर अद्वैतवाद के खंडन में स्वयं आचार्य ने बहुत ही विशेष रूप से किया है यहाँ पर केवल संक्षेप से दिग्दर्शन कराया जा रहा है। ब्रह्मवादी का कहना है कि "ये सभी चेतन अचेतन पदार्थ प्रतिभासस्वरूप परमब्रह्म में ही अंतः प्रविष्ट हैं क्योंकि प्रतिभासित हो रहे हैं जैसे कि परमब्रह्म का स्वरूप उसी के अंतः प्रविष्ट है। सारे जगत् के पदार्थ प्रतिभासित हो रहे हैं अतः वे परमब्रह्म के ही अंतः प्रविष्ट हैं।" ___इस पर जैनाचार्यों का कथन है कि ये जो चेतन अचेतनादि अनेक पदार्थ दिखाई दे रहे हैं ये सर्वथा असत्य-काल्पनिक नहीं हैं क्योंकि जैसे स्वप्न के राज्य से सुख नहीं मिलता है, स्वप्न में भोजन करने से पेट नहीं भरता है वैसी बात तो साक्षात् राज्य का उपभोग करने में या भोजन करने में नहीं है प्रत्युत वास्तविकता दृष्टिगोचर होती है अतएव सर्वथा इन सभी व्यवहारों को अविद्या का विलास कहना उचित नहीं है। दूसरी बात यह भी है कि आप अपने ब्रह्मवाद को सिद्ध करने के लिये प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम आदि तो मानोगे ही फिर भला सर्वथा अद्वैत कहाँ रहा ? यदि इन प्रमाणों को भी काल्पनिक कहोगे तो काल्पनिक उपायों सेपरमब्रह्म की सिद्धि भी काल्पनिक होगी न कि वास्तविक, क्योंकि झूठ बोलने वाला व्यक्ति किसी बात को झूठी ही कहेगा न कि सत्य, यदि सत्य भी कहेगा तो वह असत्यभाषी नहीं कहलायेगा। इसलिये अविद्या से आपका परमब्रह्म भी अविद्या का ही विलास रह जाता है। "शब्दाद्वैतवाद" शब्दाद्वैतवादी का कहना है कि यह सारा जगत् शब्दब्रह्म स्वरूप है, यह शब्दब्रह्म तो अनादि. निधन है और अक्षरादि उसके विवर्त हैं। जितने चेतनाचेतन पदार्थ हैं वे सभी इसी शब्दब्रह्म के भेद प्रभेद हैं । ज्ञान शब्द से अनुविद्ध होकर ही पदार्थ का निश्चय कराता है । मतलब जगत् में जितना भी ज्ञान है वह शब्द के द्वारा ही होता है । उनके यहाँ शब्द के चार भेद माने हैं। वैखरीवाक्, मध्यमावाक्, पश्यंतीवाक् और सूक्ष्मावाक् । कहा भी है "वैखरी शब्दनिष्पत्तिः मध्यमा श्रुतिगोचरी। द्योतितार्था च पश्यंती सूक्ष्मावागनपायिनी।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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