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________________ अद्वैतवादियों का खंडन ] प्रथम परिच्छेद [ २३३ आप द्वैतवादी-जैन आदि लोग "अहं प्रत्यय" से आत्मा को सिद्ध करते हैं, किन्तु वह अहं प्रत्यय क्या है ? गृहीत है या अगृहीत, निर्व्यापार है या व्यापार सहित, निराकार है या साकार ? इत्यादि रूप से अनेक प्रश्न उत्पन्न होते हैं । यदि आप जैन कहें कि "अहं प्रत्यय" गृहीत है तो भी प्रश्न उठेगा कि स्वगृहीत है या पर से ? इत्यादि प्रश्नमालाओं का विराम नहीं हो सकेगा। विज्ञानाद्वैतवादी के इस सिद्धान्त को सुनकर जैनाचार्य उत्तर देते हैं कि भाई ! आप शानमात्र ही तत्त्व मानते हो तो केवल वचन मात्र से ही मानते हो या प्रमाण से ? यदि वचन मात्र से कहो तो सभी अपने-अपने वचनों से अपने-अपने तत्त्वों की मान्यता को सच्ची कह रहे हैं, पुनः सारा विश्व एक विज्ञान रूप ही कहाँ रहा ? यदि कहो कि प्रमाण से हम एक विज्ञान तत्त्व को सिद्ध करते हैं तब तो प्रत्यक्ष से या अनुमान से ? प्रत्यक्ष प्रमाण से तो आप सम्पूर्ण पदार्थों का अभाव सिद्ध नहीं कर सकते हैं, क्योंकि प्रत्यक्ष तो बाह्य पदार्थों के अस्तित्व को ही सिद्ध कर रहा है न कि बाह्य पदार्थों के अभाव को। अनुमान से भी आप अंतरंग, बहिरंग पदार्थों (चेतनाचेतन) को समाप्त नहीं कर सकते हैं क्योंकि जो बात प्रत्यक्ष से बाधित है । यदि अनुमान उसमें प्रवृति करेगा तो बाधित पक्षवाला अनुमानाभास हो जावेगा। आपने जो कहा कि पदार्थ और ज्ञान एक साथ उपलब्ध हो रहे हैं अतः एक हैं यह मान्यता भी गलत है क्योंकि जो पदार्थ एक साथ हों वे एक हो हों यह नियम बन नहीं सकता है । रूप और प्रकाश एक साथ हैं किन्तु एक नहीं हैं । इसके अतिरिक्त ! बाह्य पदार्थ न होते हुये भी अंतरंग में सुखादि का अस्तित्व पाया जाता है । सामने महल भोजन आदि समान होते हुये भी उनका ज्ञान पाया जाता है। तथा सर्वज्ञ का ज्ञान और ज्ञेय एक साथ होने से क्या एकमेक हो जावेंगे? अर्थात् नहीं। आपने जो "अहं प्रत्यय" का खंडन किया है वह भी गलत है "मैं ज्ञानमात्र तत्त्व को जानता हूँ" इस आपकी मान्यता में तो "अहं-मैं" शब्द आ ही गया है फिर आपने जो प्रश्न उठाये हैं वे भी कुछ विशेष महत्त्व नहीं रखते हैं । देखिये ! आपने जो प्रथमतः प्रश्न किया है कि अहं प्रत्यय गृहीत है या अगृहीत ? सो अहं प्रत्यय स्वयं ही सबको गृहीत है "मैं जानता हूँ, मैं जाता हूँ, मैं खाता हूँ, मैं पढ़ता हूँ, मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ" इत्यादि से सभी को मैं शब्द का अनुभव स्वयं ही आ रहा है एवं अपने को और पर को जानने वाला होने से यह "अहं प्रत्यय" व्यापार सहित है इत्यादि । दूसरी बात यह है कि एक ज्ञानमात्र ही तत्त्व को मानने पर तो सबसे बड़ी आपत्ति यह आती है कि वही ज्ञान ग्राह्य और ग्राहक रूप से दो रूप सिद्ध हो जाता है पुनः अद्वैतवाद सिद्ध न होकर द्वैत सिद्ध हो जाता है । तथा एक यह भी बाधा आती है कि ज्ञान ही जब ग्राह्य और ग्राहक बन गया तब बाह्य पदार्थों में उठाना, रखना, फोड़ना, पकड़ना आदि जो कार्य देखा जाता है वह कैसे संभव होगा? ज्ञानमात्र में लड्डू के झलकने से किसी को आज तक उसका स्वाद नहीं आया है । जब सभी पदार्थों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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