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________________ २३२ ] अष्टसहस्री [ कारिका ३[ सर्वेषामद्वैतवादिनां निराकरणं ] तत्र संवेदनाद्वैतानुसारिणः स्वपक्षसाधनस्य परपक्षदूषणस्य वा संविदद्वैतविरुद्धस्थाभिधानं, तथा द्वैतप्रसिद्धेः । संवृत्त्या तदुपगमे न परमार्थतः संविदद्वैतसिद्धिः, अतिप्रसङ्गात् । एतेन चित्राद्वैतपरब्रह्माद्यवलम्बिनां परस्परविरुद्धाभिधानं प्रतिवणितम् । - एक वैनयिक मतवाले हैं जो कि सभी के भगवान् को सभी के गुरु और आगम को मानते हैं तथा सभी के मान्य पदार्थ भी स्वीकार कर लेते हैं और सभी की विनय भक्ति करते हैं किन्तु ये भी तीर्थं का विनाश करने वाले हैं क्योंकि प्रायः सभी के मत परस्पर में एक दूसरे के विपरीत ही हैं अतः सभी को तो सर्वज्ञ माना नहीं जा सकता है। [ अद्वैतवादियों का खण्डन ] संवेदनातवाद्वैदी के यहाँ स्वपक्ष साधन अथवा परपक्षदूषण वचन संवेदनाद्वैत से विरुद्ध ही है क्योंकि उस प्रकार मानने पर तो द्वैत का ही प्रसंग आ जाता है और संवृत्ति से उसे स्वीकार करने पर परमार्थ से संवेदनाद्वैत सिद्ध नहीं होगा अन्यथा अतिप्रसंग आ जावेगा । अर्थात् स्वपक्ष साधन अथवा परपक्ष दूषण के होने पर द्वैत का प्रसंग आता है । इस दोष को दूर करते हुये यदि आप बौद्ध कल्पना से द्वैत को स्वीकार करें तब तो संवेदनाद्वैत की सिद्धि भी कल्पना से ही होगी न कि निश्चय से । इसी कथन से चित्राद्वैतवादी, ब्रह्माद्वैतवादी के यहाँ भी परस्पर विरुद्ध कथन पाया जाता है उसका भी निराकरण कर दिया है । विशेषार्थ-जो एक रूप ही सारे विश्व को मान लेते हैं वे एक प्रमाणवादी कहलाते हैं। ये सभी अद्वैतवादी हैं, इनमें पाँच भेद हैं-विज्ञानाद्वैतवाद, चित्राद्वैतवाद, शून्याद्वैतवाद, ब्रह्माद्वैतवाद और शब्दाद्वैतवाद । यहाँ संक्षेप से इनका वर्णन करते हैं यथा [ विज्ञानाद्वैतवाद का खण्डन ] विज्ञानाद्वैतवादी का कहना है कि अविभागी एक बुद्धि मात्र को छोड़कर जगत् में और कोई पदार्थ है ही नहीं, इसलिये एक विज्ञानमात्र तत्त्व ही मानना चाहिये। ऐसे एक विज्ञानमात्र तत्त्व को करने वाला ज्ञान ही प्रमाण है। उसका कहना है कि हम अर्थ का अभाव होने से ज्ञान मात्र तत्त्व मानें ऐसी बात नहीं है, किन्तु अर्थ और ज्ञान एकत्र उपलब्ध होते हैं अतः इनमें अभेद माना है। "जो प्रतिभासित होता है वह ज्ञान है क्योंकि प्रतीति में आ रहा है जैसे सुखादि और नीलादि प्रतीत हो रहे हैं अतः वे भी ज्ञान ही हैं" इस अनुमान के द्वारा समस्त पदार्थ एक ज्ञानरूप सिद्ध हो जाते हैं । ग्रहण 1 ता । (ब्या० प्र०) 2 वा स्थाने च इति पाठांतरं ब्यावरपुस्तके । (ब्या० प्र०) 3 विद्यते । एकानेकप्रमाणवादिनां स्वप्रमाव्यावृत्तेरिति संबंधः । (ब्या० प्र०) 4 तथा सति । 5 प्रमाणप्रमेयभेदेन । (ब्या० प्र०) 6 स्वपक्षसाधने परपक्षदूषणे वा सति द्वैतप्रसङ्ग निराकुर्वन् यदि कल्पनया द्वैतमङ्गीकुर्यात्तदा संविदद्वैतसिद्धिरपि कल्पनयैव सिद्धय न्न निश्चयेनेत्यर्थः । 7 कल्पितात्कस्यचित् सिद्धा वितरस्यापि तत्त्वस्य कल्पितात्सिद्धिप्रसंगः (ब्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org :
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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