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________________ तत्त्वोपप्लववाद का खंडन ] प्रथम परिच्छेद [ २२६ पर से प्रमाणता आती है तथा "असंभवबाधकत्व" स्वतः सिद्ध है इसलिये अनवस्था एवं इतरेतराश्रय दोष संभव नहीं हैं। पर से प्रमाणता मानने में वह पर प्रमाण स्वतः प्रमाण रूप है इसलिये भी अनवस्था नहीं आती है। आत्मा का स्वार्थ संवेदन में अपने २ आवरणों का क्षयोपशम एक बार या पुनः पुनः होना अभ्यास है इससे विपरीत अनभ्यास है। हम आत्मा को कथंचित् नित्यानित्य मानते हैं अतः अभ्यासअनभ्यास दोनों ही संभव हैं। पूर्व स्वभाव का त्याग और अपर स्वभाव का उपादान तथा दोनों में अन्वित स्वभाव स्थिति इन तीनों लक्षणों में नित्यानित्य आत्मा में अभ्यास अनभ्यास दोनों ही संभव हैं । अतः आप शून्यवादी कुछ भी स्वयं निश्चित तत्त्व का आश्रय न लेते हुये भी हम जैनों के यहाँ तत्त्व में परीक्षा या संदेह करते हैं या नहीं मानकर शून्य कहते हैं यह कथमपि शक्य नहीं है क्योंकि कहीं अपने यहाँ कुछ निश्चय का आश्रय लेकर ही अन्यत्र अनिश्चित विषय में परीक्षा होती है। इसलिये सभी प्रमाण प्रमेय तत्त्व को उपप्लुत-बाधित या प्रलयरूप कहते हुये आप अपनी आत्मा का ही घात कर लेते हैं। अतः तत्त्वोपप्लववादकांत श्रेयस्कर नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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